Friday 17 August 2012

बोलती पत्थर


एक स्त्री
नारी अस्तित्व को
सुरक्षित रखने का
प्रयत्न करती
पेट पालती है
सड़क पर पड़े पत्थरों को तोड़कर
अचानक,
हाथ थम जाते हैं
सतब्ध रह जाती है वो
एक अनजानी बात
मन में पाकर
सोचती है
मैं तोड़ रही हूँ जिस तरह
इन बेजान पत्थरों को
हम सबको भी तोड़ रहा है कोई
नारी टूट रही है
उसी तरह
जिस तरह हमारे हाथों
टूटता है पत्थर
क्यूं टूट रही है नारी
क्यू लुट रहा है उसका अस्तित्व
हां शायद कारण यह हो
कि
वह भी है पत्थर
बोलने वाली किन्तु खामोश
बोलती पत्थर।
                                        - उर्वशी उपाध्याय

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