Sunday 4 May 2014

सपनों की इमारत

मेरे घर के बगल
रफ्तार के साथ
बन रही थी इक इमारत
आखिरी पड़ाव पर है उसका निर्माण
आज पूर्णिमा है...
एक तिमाही से चल रहा है निर्माण
कुछ दिनों में हो जायेगा समाप्त
तैयार हो जाएगी, एक शानदार इमारत
पहले ही दिन
मैंने देखी थी एक स्त्री
ईंट ढोती, एक बच्चे के साथ
देखती हूं आज भी उसे
वैसे ही
तब बच्चा बैठकर रोता था
आज वह समय के साथ
खड़ा होने लगा है
सिर पर ईंट लिए
इमारत की ऊंचाई से
ममता को दबाकर
फिक्रमंद आंखों से
नीचे झांकती है वह,
कुछ एहसास पाकर
बच्चा देखता है ऊपर
और, हो जाता है खड़ा
हाथ करके ऊपर....!
क्यूं करता है ऐसा...
अपने अधिकार के लिए?
या, मां के प्यार के लिए?
पर, मां की निगाहें
अगली दीवार पार कर
चली जाती है ऊपर
छत से भी बहुत ऊपर
भाव शून्य हो, सोचती है वह
कैसा होगा इसका भविष्य
शायद
जायेगा यह, मुझसे भी बहुत ऊपर
बनवायेगा, और भी बड़ी इमारत
हालांकि वह जानती है
जिस मंजिल पर है निगाह उसकी
बच्चे की खातिर
वहां हवा है शून्य है
कुछ दूरी पर वृक्ष है,
उसके झुरमुट से
झांकने लगा है चन्द्रमा
संकेत दे रहा है
पूनम की रात का।
आज सावन की पूर्णिमा है
अरे! साल भर पहले
आज ही तो आया था यह
दुनिया में
और आज ही मेरी ऐसी कल्पना!
शायद उड़ गयी थी मैं ऊंची उड़ान
मुझे माफ करना मेरे ईष्ट
पर कुछ देर रोक देना उसे
वहीं, हवा में ही
फिर तूफानों में लपेटकर
पटक देना
पर, यह जल्दी करना
जिससे दोबारा
वह भूल जाये
हवा में उड़ना, घर बसाना
और हवा में खो जाना।

                                - उर्वशी उपाध्याय 

Monday 10 March 2014

राजनीति की शिकार ... आधी आबादी

देश हित में राजनीति और राजनीति में महिला सहभागिता का सवाल तमाम बौध्दिक गोष्ठियों, सेमिनारों एवं अनेक मंचो पर हमेशा चर्चा का केन्द्र बिंदु रही हैं। कहने को तो सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज जैसी तमाम नेता भारतीय सत्ता राजनीति के आकाश के चमकते नक्षत्र हैं लेकिन सवाल ये है कि इस चमक का दायरा कितना व्यापक- कितना सघन - और कितना विश्वास योग्य है, और कितना विश्वास योग्य है।
भारत में एक बार फिर आम चुनाव सामने हैं और राजनैतिक जोड़तोड़ के दौर शुरू हो चुके हैं। इसी गहमागहमी में ये जानना भी दिलचस्प है कि हर दल का चुनाव मैदान में महिलाओं को अहम भागीदारी देने का दावा है पर दावें कितने कारगर होते हैं यह प्रश्न समय के साथ ही हल हो पायेगा।
भारत उन देशों में से एक है जिसने दशकों पहले ही अपनी बागडोर इंदिरा गांधी के हाथों सौंप दी थी लेकिन आज भी हर स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक नहीं है। पार्टियों में महिला कार्यकर्ताओं से आज भी केवल महिला संबंधी विषयों पर काम कराया जाता है, यह कहकर कि उनका दायरा इतना ही है जबकि सत्य इससे काफी दूर है। दरअसल पुरुष स्वाभिमान महिलाओं का वर्चस्व बर्दास्त नहीं करना चाहता। तभी तो जब देश की नीतियों और महत्वपूर्ण फैसले लेने की बात आती है तो महिलाओं की भूमिका नहीं के बराबर रहती है। फिर भी सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी या फिर जयललिता जैसी नेताएं हमारे सामने हैं जो भारतीय राजनीति के शिखर पर देखी जा सकती हैं। कहीं न कहीं उनका दमदार अस्तित्व वर्तमान राजनीतिक स्ववस्था को चुनौती अवश्य देता है।
एक तरफ बड़े शहरों के कॉर्पोरेट जगत में धीरे धीरे महिलाएं पुरुषों के साथ अपनी जगह बना रही हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं राजनीति में उतर कर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।
आज भी गरीबी, शिक्षा में कमी या फिर पिछड़े समाज की वजह से महिलाएं आगे नहीं आ पा रही हैं। अगर महिलाएं आगे आती भी हैं तो इसके पीछे किसी न किसी पुरुष का हाथ होना आवश्यक होता है। वरना अपने बलबूते पर समाज में ऊपर आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता। यह कटु सत्य नहीं है बल्कि समाज का एक ऐसा आईना है जो देखने में वीभत्स भी है और शर्मनाक भी, लेकिन देश के कर्णधारों को राजनीति और सामाजिक सरोकारों के मध्य बढ़ती खाई, आवश्यकताओं को दरकिनार कर स्वार्थपरक नीतियों के आगे सोचने की आवश्यकता गैर जरूरी नजर आ रही है।
जब 1996 में महिलाओं के हित में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात आई तो आधी आबादी को सुखद अहसास का एक कारण मिला लेकिन तमाम वादों और बातों के बीच में बातें सिर्फ बातें ही रह गयी। हर बार विपक्ष की तरफ से इस बिल को पीछे धकेल दिया जाता है. 1992 में भारत की लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत था। समय के साथ साथ यह संख्या बढ़ी लेकिन हर बार नीचे की ओर भी लुढ़की। 1991 में लोकसभा में 8.04 प्रतिशत महिलाएं थीं और 2004 में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कभी भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 9 से 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सका। कुछ दिनों पूर्व जब महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पारित हुआ तो उम्मीद जगी और कई विधेयक बिना चर्चा के पारित भी किए गये परन्तु यह आरक्षण विधेयक आज भी आम सहमति के नाम पर हो रही राजनीति का शिकार है।
भारत में सबसे ज्यादा उन्नती कर रहे राज्य, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिल नाडू में बहुत कम महिला राजनीतिज्ञ सामने आई हैं जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार में उनकी संख्या कहीं ज्यादा है। छोटी पार्टियों की तुलना में बीजेपी या कांग्रेस ने महिलाओं को कम मौके प्रदान किये हैं। सीपीआईएम ने पिछले चुनावों में 12 प्रतिशत टिकटें महिलाओं को दीं जबकि बीजेपी ने 8 प्रतिशत और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत से कुछ कम।
जीतने लायक उम्मीदवार होने का हवाला देकर महिलाओं को राजनीति से दूर रखना और उनके हक की आवाज को मुखर न होने देने की नीति आरक्षण का समर्थन करने से ध्वस्त न हो जाये.... सवाल बड़ा है तो सतर्कता तो बरतनी ही पड़ेगी?
                                                               - उर्वशी उपाध्याय
                                                                                                                     

Monday 20 January 2014

बहुत कुछ सिखा गया............. बीता साल

हर वर्ष की तरह वर्ष 2013 भी बीत गया। एक नये वर्ष में हमनें चाहे अनचाहे कदम तो रख ही लिया है, क्योंकि काल है कभी रुकेगा नहीं .... हमेशा चलता रहेगा .... इस संदेश के साथ कि जीवन गतिमान है .... या यूं कहें कि यह जीवन तभी तक है जब तक गति है.... कोशिशें सकारात्मक हो तो गति निर्बाध होगी .... आशाओं को उड़ान मिलेगी .... हौसलों को पंख लगेंगे और... ठीक वैसा ही होगा जो एक सुखद एहसास के लिए जरूरी है।

बहुत सारी खट्टी मीठी यादों को समेटे यह नया वर्ष शुरू हो चुका है। बीते वर्ष की तमाम ऐसी बातें जिन्हें हम सोचकर खुश तो हो तो सकते हैं लेकिन उनसे कहीं ज्यादा वह बातें हैं जो कि मन में एक अलग टीस पैदा करती हैं। तमाम कोशिशें क्रांतिकारी सोच का आधार बनीं तो कुछ ने आशाओं के लिए नयी राह बनायी, लेकिन इन सबके बीच कुछ सोचने व सबक लेने की बातें भी है जो बीते वर्ष में तमाम मानवीय कुकृत्यों प्राकृतिक घटनाओं से प्रभावित रहीं। जिनसे कुछ सीखना कोई अपराध नहीं हमारी जरूरत है भविष्य के सुखमय आधार के लिए।
गत वर्ष सदी का महानतम एवं विश्व का सबसे बड़ा मेला कहा जाने वाला महाकुंभ (प्रयाग) देश विदेश के करोड़ो श्रध्दालुओं में आस्था और कौतुहल का केन्द्र रहा। आस्था पर अंधविश्वास और जनसंख्या का समागम इतना भारी पड़ेगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। गंगा - यमुना - सरस्वती की त्रिवेणी पर जाने कब से यह परम्परा चली आ रही है, जाने कितनी बार यह भूमि तमाम श्रध्दालुओं की बलिबेदी बन चुकी है, पता नहीं? लेकिन आस्था के नाम पर उमड़ता जन सैलाब, 2013 के महाकुंभ में हुई भगदड़ और इलाहाबाद जंक्शन पर भगदड़ से हुई मौतों के बावजूद शायद ही थम पाये।
उत्तराखण्ड में आयी दैवीय आपदा की चर्चा शांत हो चुकी है, धीरे-धीरे पूरी तरह खबरों में दफ्न भी हो जायेगी और अगली किसी त्रासदी के समय वह पन्ने जब पलटे जायेंगे तो शायद इसकी चर्चा हो इस पर पर्यावरण चिंतक अपनी-अपनी व्याख्याएं करेंगे, अनेक प्रकार की परिभाषाएं तैयार की जाएंगी, टीका-टिप्पणियों का दौर चलेगा और फिर सबकुछ थम जायेगा। लेकिन विकास के नाम पर होती विनाश की खेती न थमी है और शायद ही कभी थमें। हजारों जाने गयी, हजारों लोग लापता हुए, जीव-जन्तु, मानव या यूं कहें कि बहुत बड़ा भू-भाग विनाश की इस लीला में समा गया। बड़ी संख्या में चारों धाम की यात्रा पर निकले तीर्थ यात्री केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री से घर नहीं लौट सके, जिनमें से कुछ की लाशें मिली कुछ प्रयाग और बनारस के घाटों तक पहुंचे और शेष कहां गये पता नहीं?
इन सबके बीच मौजूद संकेत को यदि समझना चाहें तो समझ जरूर सकतें हैं पर विकास के नाम पर पूंजीवाद का पनपता संसार हर किसी को प्रभावित कर रहा है, सो सबक लेना जरूरी नहीं लगता।
मानवीय संवेदनहीनता का पैगाम देती कई घटनाएं एक एक कर पूरे वर्ष सामने आती रहीं। बोधगया में हुआ आतंकी हमला इसका साक्षात प्रमाण है। पूरे विश्व को अमन का पैगाम देने वाले भगवान बुध्द की कर्म स्थली बोधगया के महाबोधि मंदिर पर आतंकवाद का साया पहुंच पाना, एक के बाद एक नौ धमाकों का लगातार होना एक ओर जहां सुरक्षा की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह पैदा करते हैं वहींनाफरत और आक्रोश से बिखरती मानवीय सोच का परिणाम भी हो सकते हैं? मुजफ्फर नगर दंगे की आग ने हजारों परिवारों को बेनूर कर दिया, जाने कितनी जिन्दगियां इस हाड़ कपा देने वाली ठंड में आकाश के नीचे हैं, उनका घर होगा, कोई दुनिया होगी पर उसे एक दहशत की तरह भुला देना चाहते हैं। हर कोई मौत के तांडव की उस भयावह तस्वीर से उबरकर नये जीवन की ओर बढ़ जाना चाहता है, पर रास्ते साथ दें जरूरी नहीं।
पिछले दिसम्बर में बस में बेबस दामिनी का दर्द हर किसी के जुबान पर रहा लेकिन फिर भी लगातार वर्ष भर कितनी दामिनी हवस का शिकार होती रहीं, कहीं पांच वर्ष की बच्ची कहीं 18 वर्ष की युवती.... लेकिन, मुंबई की महिला पत्रकार, तेजपाल कांड में शिकार महिला पत्रकार और आशाराम की शिकार युवती के अतिरिक्त अधिकतर एक दिन का समाचार बनकर रह गयीं। घटनाएं हजारों हुई लेकिन चर्चा सिर्फ कुछ की। सबक के लिए क्या ये काफी नहीं है? बेटियां आने वाली दुनिया की आधार है उनपर अत्याचार-अपमान और आने वाले सुखमय भविष्य की कामना बिल्कुल विरोधाभासी बातें हैं। हर क्षेत्र में बढ़कर बेटियों ने साहस का परिचय दिया है तो फिर सम्मान की रक्षा के लिए उनका सिर न उठना किसी तूफान के आने की दस्तक भी तो हो सकती है!
राजनैतिक धरातल पर भ्रष्टाचार की लड़ाई रंग लाती दिखाई अवश्य दी पर राजनीति को उथल-पुथल कर डालने वाले अन्ना और अरविन्द केजरीवाल के बीच सोच का अंतर भी स्पष्ट दिखाई दिया। सोच मुश्किल लग सकती है लेकिन हमें इसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आता है और वह है लोगों में अमन चैन की चाहत अब भी बाकी है। इसलिए यह कहना सर्वथा सत्य है कि जनता दिखावे, लूट खसोट और राजनीति की गंदगी से ऊपर उठकर परिवर्तन का एक नया दौर देखना चाहती है।
पूरे वर्ष राजनीतिक सामाजिक उठापटक का दौर चला। प्राकृतिक घटनाओं से देश-विदेश सभी प्रभावित हुए। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कश्मकश भरा यह साल हर पल आने वाले वर्षों के लिए नये संकेत देता रहा लेकिन कौन इन संकेतों को कितना समझे, माने या आत्मसात करे यह समय बतायेगा, पर यह तो सच है कि समाज, पर्यावरण, राजनीति या मन:स्थिति की बातें जिनकी भी हो उनकी अपनी भाषा होती है। उस भाषा को परखकर समय रहते अपनाएं तो शायद यह नया वर्ष और आने वाले हर वर्ष हर्ष से परिपूर्ण हो सकते।

                                                                                                                                   - उर्वशी उपाध्याय