Saturday 11 August 2012

65 बरस की आजादी...


स्वतंत्रता की 65वीं वर्षगांठ पर एक बार पुन: यह सोचने की आवश्यकता है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूर्वनियोजित कल्पना का साकार रूप क्या यही था जिसे हम देख रहें हैं? कहीं लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात् करने के साथ ही हमने कुछ ऐसी प्रवृत्तियों को तो नहीं अपनाया है जो हमारे देश की भौगोलिक एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत को ध्वस्त करने का दुष्चक्र रच रही है?
एक तरफ हम लोकतांत्रिक धरातल को पुष्ट करने की बात करते हैं तो वहीं दूसरी ओर असमानता, गरीबी, भुखमरी, हिंसा, बलात्कार और कन्याभ्रूण हत्या जैसी बहुत सी समस्याएं सर उठाकर दहाड़ लगा रही है, लोकतंत्र की यह भयावाह तस्वीर किसी एक स्थान पर नहीं है, हर ओर यह व्याप्त है और इन सबसे ऊपर है राजनैतिक नीतियों की शिकार होती जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का अनवरत सिलसिला...
बीते दिनों कुछ बातें चर्चा की केन्द्र में थी जिनमें एक-एक कर लगातार होते जा रहे घोटालों के खुलासे का सिलसिला लिंगानुपात की बढ़ती खाई, हिंसा की बढ़ती घटनाएं, गरीबी का निर्धारण और सफेदपोश नेताओं की काली करतूते हर जुबान पर थी।
जहां जनगणना के अनुसार लिंगानुपात में लगभग 20 प्रतिशत का अन्तर आ चुका है वहां लगातार बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएं समाज के हर तबके में तेजी से बढ़ रही है तो ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब इस दरिंदगी से सुरक्षा का उत्तरदायित्व निभाने वाले कानून के रक्षक भी भक्षक की भूमिका में नजर आ जाएं तो लोकतंत्र का शर्मसार होना क्या स्वाभाविक नहीं है?
एक पढ़ी लिखी स्त्री पूरे परिवार को साक्षर करती है पर जब वह आगे बढ़ अपना अस्तित्व सम्भाल कर मुखर होती है तो जाने कौन सी भावनाएं आहत होती है जिससे उनको मिटा देने की साजिश रच डाली जाती है। कहीं मधुमिता के गीत शांत कर दिये जाते है, तो कहीं फिजा की बुलंद आवाज दबा दी जाती है तो कहीं गीतिका की मासूमियत नष्ट कर दी जाती है, कहीं कमला की गोद का शिशु पिता के नाम से महरूम सिसकियां ले रहा है। लोकतंत्र की परिपाटी का कौन सा अध्याय इन्हें अमरमणि या फिर कांडा बनने की आजादी देता है।
मंहगाई का बढ़ता ग्राफ और आंकड़ों में दफ्न होती गरीबी अभी किसी प्रकार शांत नहीं हो पाई थी कि जोर-शोर से तैयारी शुरू हो गयी कि बीपीएल कार्ड धारकों को अब मिलेगा मोबाइल.... भण्डारण न कर सकने से सड़ते अनाज को सुप्रीम कोर्ट तक की कोशिश के बावजूद बांटना जरूरी नहीं, बिजली, स्वाथ्य एवं शिक्षा से महरूम जनता को अन्य किसी सुविधा की कोई आवश्यकता नहीं, बस जरूरी है गरीबों का दिल बहलाने वाला मोबाइल। विकास की राह पर छलांग लगाने का यह तरीका सरकारी नीतियों द्वारा एक साथ कई निशाने लगाने के लिए काफी है। एक ओर इसे 2-जी स्पेक्ट्रम के दलदल में फंसी कम्पनियों और सरकारी सांठ-गांठ को निपटाने का तरीका बनाया जा रहा है या फिर गरीबों को (छब्बीस रुपये गांव में और बत्तीस रुपये शहर में प्रतिदिन कमाने वालों से नीचे गुजर बसर कर रही जनसंख्या) मोबाइल देकर उनके मुंह में जाने वाला दो चार निवालों को भी छीन लेने की शाजिस की जा रही है, या फिर सरकारी खजाने से चुनाव प्रचार का उत्तम तरीका अपनाया जा रहा है। फिर लोकतंत्र की इस तस्वीर में आजादी के कौन से रंग दिखेंगे यह जनता ही देखेगी।
लोकतंत्र का माखौल उड़ाने से कहीं बेहतर होता कि हम वास्तव में उसकी गरिमा को समझ पाते। पूरा नहीं तो थोड़ा ही सही पर लोकतंत्र की उस भावना को आत्मसात् करते, जो कि स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वालों के मन मस्तिस्क में थी और मानवता की भावना अपनाकर हम उन्हें श्रध्दांजलि दे सकें तो इसके लिए उस भावना को फिर से अपनाने का संकल्प लेना होगा।

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