Saturday 5 January 2013

दंश और दुस्साहस की दुनिया में... दामिनी


अन्याय, भेदभाव, शोषण व तिरस्कार की जो दुनिया हम देख रहें हैं क्या हम उसमें रहना चाहेंगे? आने वाली पीढ़ियों को परम्परा की यही सौगात हम पहुंचाएंगे? क्या बलात्कारी स्वयं यह बर्दास्त करेगा कि उसके घर की किसी महिला... बहन, बेटी, भाभी के आदि के साथ यह घिनौना कृत्य हो?
दामिनी का दर्दनाक अंत एक बहाना हो सकता है सभी की व्यवहारिक सोच को बाहर लाने का जहां एक ओर बलात्कार के सैलाब से तर बतर समाज में अब भी सिर्फ राजनीति गर्म है- कहीं आपसी राजनीति, कहीं कानूनी और कहीं परिस्थितियों से राजनीति। कोई व्यवस्था की जटिलता के बीच घुसते हुए राह निकालने की ओर शायद नहीं बढ़ना चाहता।
२०१२ का अंत बहुत दर्दनांक रहा... कई बार शर्मिंदगी भारतीय समाज की उस संस्कृति पर हावी होती रही जहां कहा जाता है- ‘‘यस्य नार्यस्त पूज्यन्ते, वस्ते तत्र देवता’’। लेकिन जाते जाते दुनियां में अलख जगाने वाली दामिनी २०१३ के लिए दंभ और दुस्साहस की दुनियां के खिलाफ मशाल बन चुकी है। अब जरूरत है उस मशाल को जलाए रखने की... जिससे दमन का दंश झेलकर किसी दामिनी की दर्दनांक दुनिया फिर से आबाद न हो।
किसी भी देश, सभ्यता, संस्कृति को महान बनाना सर्वथा उन बातों पर निर्भर है जो कि बातों, विचारों को प्रवाहित या सबके मध्य फैलाने का माध्यम बन सकती हैं। दामिनी की दर्दनांक दुनियां को समाज में प्रवाहित कर मीडिया ने सामाजिक चेतना का जो उदाहरण पेश किया है, अतुलनीय है। किसी भी व्यवस्था को बदलने के लिए, पुनर्स्थापित करने के लिए आम जनता की आवाज व्यवस्था के हुक्मरानों को कितना मजबूर कर सकती है यह इस वक्त स्पष्ट देखा जा सकता है। परन्तु शायद अब मानसिकता ही भुलावे की होती जा रही है तभी कोई चीख-चीत्कार कभी ज्यादा देर तक असर नहीं डाल पाती। अभी दामिनी आखिरी सांसे ले ही रही थी कि हवस की शिकार एक बालिका अपनी सुरक्षा की फरियाद लिए थाने जाती है और उन्हीं पुलिसवालों द्वारा उसे फिर से शिकार बनाया जाता है। देश भर में दर्द और जुनून का आलम थमा नहीं लेनिक अखबारों के हर पांचवी खबर यही है... रेप की नहीं ... गैंग रेप की... न्याय के मंदिर में अन्याय? समाज परिवार में सिर्फ असुरक्षा आखिर कहां जाए आधी आबादी? कहां पले बेटियां?
शारीरिक शोषण के बहाने मानसिक यातना का यह खेल नया नहीं है। चीर हरण द्रौपदी का सरेआम हुआ था। सीता हरण का उदाहरण भी हमारी संस्कृति में है। इन्ही उदाहरणों से हमें अपराधियों का हश्र समझ लेना चाहिए? संस्कृति और सभ्यता के बदलते ताने-बाने में आज की विकास की आवश्यकताएं क्या भुला देना चाहिए? क्या नारी अस्मिता को सार्वजनिक कर देना चाहिए? या फिर यह मान लेना चाहिए कि विकास की भाषा कुकृत्यों के व्याकरण से तैयार होती है।
यह सच है कि पाश्चात्य सभ्यता की नकल ने हमारी सभ्यता में कुछ बदलाव किये हैं। पहनावे में भी परिवर्तन हुआ है। पुरुषो-स्त्रियों की समानता के लिए कई प्रयास किए गये हैं। कुछ संस्कृति की सोच में शामिल हैं तो कुछ अलग भी हैं। परन्तु कुकृत्य की शिकार महिला अपने मान की रक्षा के लिए आज भी जूझती है। उसे मानसिकता की दोहरी नीति की तराजू में तौलना कितना तर्कसंगत है? एक तरफ हम बलात्कार जैसी घटनाओं में दोषियों के लिए फांसी की मांग करते हैं वहीं दूसरी ओर हम दोष लड़की के पहनावे, असमय आने जाने को देते हैं और हमारे राजनेता उसे मर्यादा में रहने की सीख देते हैं। अनेक दुर्व्यवहार, दुर्व्यसन और अशिक्षा के बावजूद कोई भी लड़की इस बात का विरोध ही करेगी कि कोई....। फिर हमारे देश में ही शिक्षित वर्ग का प्रतिनिधि ऐसा कैसे कह सकता है कि यदि वह ‘‘विरोध न करती तो...’’।
यदि अपने मान को बचाने के लिए एक लड़की अपनी जान दांव पर लगाये तो क्या वह दोषी है। एक राजनेता का कहना था कि ‘‘यदि कम उम्र में विवाह कर दिया जाए तो यह घटना रुक सकती है।’’ आखिर उनका कहना क्या था? क्या इसे यह समझा जाए कि पुरुष की शारीरिक संतुष्टि के लिए बालिकाओं की बलि देना अपराध नहीं बल्कि आवश्यकता है? या फिर यह कि - विवाहित महिलाए सर्वथा सुरक्षित हैं? अपना रुख स्पष्ट कर कोई बात नेता जी शायद न कह पाएं। पर बयानों का क्या है कुछ भी दिया जा सकता है। व्यवस्था में परिवर्तन न हों हर प्रयास इसी दिशा में होते रहें हैं और शायद होते रहेंगे। तभी तो तमाम दुराचारी खुले आम घूम रहें हैं। क्योंकि प्रश्न महिला अस्मिता का है जहां पुरुषों का अहं टकराता है तो जीत अपनी ही चाहता है वर्ना महिला आरक्षण बिल वर्षों से पड़ा धूल नहीं फांकता।
मानवीय संवेदना से बहुत दूर पशुवत व्यवहार का यह नमूना हमारे लिए, हमारी संस्कृति के लिए शर्मनाक है। उम्मीद क्या है और परिणाम क्या होगा शायद इसी पर देश का भविष्य निर्भर करेगा, अब देखना यह भी होगा कि कानून की तमाम कोशिशें व्यवहारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कौन से आयाम स्थापित करती हैं?
                                                                                            - उर्वशी उपाध्याय