Sunday 4 May 2014

सपनों की इमारत

मेरे घर के बगल
रफ्तार के साथ
बन रही थी इक इमारत
आखिरी पड़ाव पर है उसका निर्माण
आज पूर्णिमा है...
एक तिमाही से चल रहा है निर्माण
कुछ दिनों में हो जायेगा समाप्त
तैयार हो जाएगी, एक शानदार इमारत
पहले ही दिन
मैंने देखी थी एक स्त्री
ईंट ढोती, एक बच्चे के साथ
देखती हूं आज भी उसे
वैसे ही
तब बच्चा बैठकर रोता था
आज वह समय के साथ
खड़ा होने लगा है
सिर पर ईंट लिए
इमारत की ऊंचाई से
ममता को दबाकर
फिक्रमंद आंखों से
नीचे झांकती है वह,
कुछ एहसास पाकर
बच्चा देखता है ऊपर
और, हो जाता है खड़ा
हाथ करके ऊपर....!
क्यूं करता है ऐसा...
अपने अधिकार के लिए?
या, मां के प्यार के लिए?
पर, मां की निगाहें
अगली दीवार पार कर
चली जाती है ऊपर
छत से भी बहुत ऊपर
भाव शून्य हो, सोचती है वह
कैसा होगा इसका भविष्य
शायद
जायेगा यह, मुझसे भी बहुत ऊपर
बनवायेगा, और भी बड़ी इमारत
हालांकि वह जानती है
जिस मंजिल पर है निगाह उसकी
बच्चे की खातिर
वहां हवा है शून्य है
कुछ दूरी पर वृक्ष है,
उसके झुरमुट से
झांकने लगा है चन्द्रमा
संकेत दे रहा है
पूनम की रात का।
आज सावन की पूर्णिमा है
अरे! साल भर पहले
आज ही तो आया था यह
दुनिया में
और आज ही मेरी ऐसी कल्पना!
शायद उड़ गयी थी मैं ऊंची उड़ान
मुझे माफ करना मेरे ईष्ट
पर कुछ देर रोक देना उसे
वहीं, हवा में ही
फिर तूफानों में लपेटकर
पटक देना
पर, यह जल्दी करना
जिससे दोबारा
वह भूल जाये
हवा में उड़ना, घर बसाना
और हवा में खो जाना।

                                - उर्वशी उपाध्याय 

Monday 10 March 2014

राजनीति की शिकार ... आधी आबादी

देश हित में राजनीति और राजनीति में महिला सहभागिता का सवाल तमाम बौध्दिक गोष्ठियों, सेमिनारों एवं अनेक मंचो पर हमेशा चर्चा का केन्द्र बिंदु रही हैं। कहने को तो सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज जैसी तमाम नेता भारतीय सत्ता राजनीति के आकाश के चमकते नक्षत्र हैं लेकिन सवाल ये है कि इस चमक का दायरा कितना व्यापक- कितना सघन - और कितना विश्वास योग्य है, और कितना विश्वास योग्य है।
भारत में एक बार फिर आम चुनाव सामने हैं और राजनैतिक जोड़तोड़ के दौर शुरू हो चुके हैं। इसी गहमागहमी में ये जानना भी दिलचस्प है कि हर दल का चुनाव मैदान में महिलाओं को अहम भागीदारी देने का दावा है पर दावें कितने कारगर होते हैं यह प्रश्न समय के साथ ही हल हो पायेगा।
भारत उन देशों में से एक है जिसने दशकों पहले ही अपनी बागडोर इंदिरा गांधी के हाथों सौंप दी थी लेकिन आज भी हर स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक नहीं है। पार्टियों में महिला कार्यकर्ताओं से आज भी केवल महिला संबंधी विषयों पर काम कराया जाता है, यह कहकर कि उनका दायरा इतना ही है जबकि सत्य इससे काफी दूर है। दरअसल पुरुष स्वाभिमान महिलाओं का वर्चस्व बर्दास्त नहीं करना चाहता। तभी तो जब देश की नीतियों और महत्वपूर्ण फैसले लेने की बात आती है तो महिलाओं की भूमिका नहीं के बराबर रहती है। फिर भी सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी या फिर जयललिता जैसी नेताएं हमारे सामने हैं जो भारतीय राजनीति के शिखर पर देखी जा सकती हैं। कहीं न कहीं उनका दमदार अस्तित्व वर्तमान राजनीतिक स्ववस्था को चुनौती अवश्य देता है।
एक तरफ बड़े शहरों के कॉर्पोरेट जगत में धीरे धीरे महिलाएं पुरुषों के साथ अपनी जगह बना रही हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं राजनीति में उतर कर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।
आज भी गरीबी, शिक्षा में कमी या फिर पिछड़े समाज की वजह से महिलाएं आगे नहीं आ पा रही हैं। अगर महिलाएं आगे आती भी हैं तो इसके पीछे किसी न किसी पुरुष का हाथ होना आवश्यक होता है। वरना अपने बलबूते पर समाज में ऊपर आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता। यह कटु सत्य नहीं है बल्कि समाज का एक ऐसा आईना है जो देखने में वीभत्स भी है और शर्मनाक भी, लेकिन देश के कर्णधारों को राजनीति और सामाजिक सरोकारों के मध्य बढ़ती खाई, आवश्यकताओं को दरकिनार कर स्वार्थपरक नीतियों के आगे सोचने की आवश्यकता गैर जरूरी नजर आ रही है।
जब 1996 में महिलाओं के हित में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात आई तो आधी आबादी को सुखद अहसास का एक कारण मिला लेकिन तमाम वादों और बातों के बीच में बातें सिर्फ बातें ही रह गयी। हर बार विपक्ष की तरफ से इस बिल को पीछे धकेल दिया जाता है. 1992 में भारत की लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत था। समय के साथ साथ यह संख्या बढ़ी लेकिन हर बार नीचे की ओर भी लुढ़की। 1991 में लोकसभा में 8.04 प्रतिशत महिलाएं थीं और 2004 में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कभी भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 9 से 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सका। कुछ दिनों पूर्व जब महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पारित हुआ तो उम्मीद जगी और कई विधेयक बिना चर्चा के पारित भी किए गये परन्तु यह आरक्षण विधेयक आज भी आम सहमति के नाम पर हो रही राजनीति का शिकार है।
भारत में सबसे ज्यादा उन्नती कर रहे राज्य, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिल नाडू में बहुत कम महिला राजनीतिज्ञ सामने आई हैं जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार में उनकी संख्या कहीं ज्यादा है। छोटी पार्टियों की तुलना में बीजेपी या कांग्रेस ने महिलाओं को कम मौके प्रदान किये हैं। सीपीआईएम ने पिछले चुनावों में 12 प्रतिशत टिकटें महिलाओं को दीं जबकि बीजेपी ने 8 प्रतिशत और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत से कुछ कम।
जीतने लायक उम्मीदवार होने का हवाला देकर महिलाओं को राजनीति से दूर रखना और उनके हक की आवाज को मुखर न होने देने की नीति आरक्षण का समर्थन करने से ध्वस्त न हो जाये.... सवाल बड़ा है तो सतर्कता तो बरतनी ही पड़ेगी?
                                                               - उर्वशी उपाध्याय
                                                                                                                     

Monday 20 January 2014

बहुत कुछ सिखा गया............. बीता साल

हर वर्ष की तरह वर्ष 2013 भी बीत गया। एक नये वर्ष में हमनें चाहे अनचाहे कदम तो रख ही लिया है, क्योंकि काल है कभी रुकेगा नहीं .... हमेशा चलता रहेगा .... इस संदेश के साथ कि जीवन गतिमान है .... या यूं कहें कि यह जीवन तभी तक है जब तक गति है.... कोशिशें सकारात्मक हो तो गति निर्बाध होगी .... आशाओं को उड़ान मिलेगी .... हौसलों को पंख लगेंगे और... ठीक वैसा ही होगा जो एक सुखद एहसास के लिए जरूरी है।

बहुत सारी खट्टी मीठी यादों को समेटे यह नया वर्ष शुरू हो चुका है। बीते वर्ष की तमाम ऐसी बातें जिन्हें हम सोचकर खुश तो हो तो सकते हैं लेकिन उनसे कहीं ज्यादा वह बातें हैं जो कि मन में एक अलग टीस पैदा करती हैं। तमाम कोशिशें क्रांतिकारी सोच का आधार बनीं तो कुछ ने आशाओं के लिए नयी राह बनायी, लेकिन इन सबके बीच कुछ सोचने व सबक लेने की बातें भी है जो बीते वर्ष में तमाम मानवीय कुकृत्यों प्राकृतिक घटनाओं से प्रभावित रहीं। जिनसे कुछ सीखना कोई अपराध नहीं हमारी जरूरत है भविष्य के सुखमय आधार के लिए।
गत वर्ष सदी का महानतम एवं विश्व का सबसे बड़ा मेला कहा जाने वाला महाकुंभ (प्रयाग) देश विदेश के करोड़ो श्रध्दालुओं में आस्था और कौतुहल का केन्द्र रहा। आस्था पर अंधविश्वास और जनसंख्या का समागम इतना भारी पड़ेगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। गंगा - यमुना - सरस्वती की त्रिवेणी पर जाने कब से यह परम्परा चली आ रही है, जाने कितनी बार यह भूमि तमाम श्रध्दालुओं की बलिबेदी बन चुकी है, पता नहीं? लेकिन आस्था के नाम पर उमड़ता जन सैलाब, 2013 के महाकुंभ में हुई भगदड़ और इलाहाबाद जंक्शन पर भगदड़ से हुई मौतों के बावजूद शायद ही थम पाये।
उत्तराखण्ड में आयी दैवीय आपदा की चर्चा शांत हो चुकी है, धीरे-धीरे पूरी तरह खबरों में दफ्न भी हो जायेगी और अगली किसी त्रासदी के समय वह पन्ने जब पलटे जायेंगे तो शायद इसकी चर्चा हो इस पर पर्यावरण चिंतक अपनी-अपनी व्याख्याएं करेंगे, अनेक प्रकार की परिभाषाएं तैयार की जाएंगी, टीका-टिप्पणियों का दौर चलेगा और फिर सबकुछ थम जायेगा। लेकिन विकास के नाम पर होती विनाश की खेती न थमी है और शायद ही कभी थमें। हजारों जाने गयी, हजारों लोग लापता हुए, जीव-जन्तु, मानव या यूं कहें कि बहुत बड़ा भू-भाग विनाश की इस लीला में समा गया। बड़ी संख्या में चारों धाम की यात्रा पर निकले तीर्थ यात्री केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री से घर नहीं लौट सके, जिनमें से कुछ की लाशें मिली कुछ प्रयाग और बनारस के घाटों तक पहुंचे और शेष कहां गये पता नहीं?
इन सबके बीच मौजूद संकेत को यदि समझना चाहें तो समझ जरूर सकतें हैं पर विकास के नाम पर पूंजीवाद का पनपता संसार हर किसी को प्रभावित कर रहा है, सो सबक लेना जरूरी नहीं लगता।
मानवीय संवेदनहीनता का पैगाम देती कई घटनाएं एक एक कर पूरे वर्ष सामने आती रहीं। बोधगया में हुआ आतंकी हमला इसका साक्षात प्रमाण है। पूरे विश्व को अमन का पैगाम देने वाले भगवान बुध्द की कर्म स्थली बोधगया के महाबोधि मंदिर पर आतंकवाद का साया पहुंच पाना, एक के बाद एक नौ धमाकों का लगातार होना एक ओर जहां सुरक्षा की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह पैदा करते हैं वहींनाफरत और आक्रोश से बिखरती मानवीय सोच का परिणाम भी हो सकते हैं? मुजफ्फर नगर दंगे की आग ने हजारों परिवारों को बेनूर कर दिया, जाने कितनी जिन्दगियां इस हाड़ कपा देने वाली ठंड में आकाश के नीचे हैं, उनका घर होगा, कोई दुनिया होगी पर उसे एक दहशत की तरह भुला देना चाहते हैं। हर कोई मौत के तांडव की उस भयावह तस्वीर से उबरकर नये जीवन की ओर बढ़ जाना चाहता है, पर रास्ते साथ दें जरूरी नहीं।
पिछले दिसम्बर में बस में बेबस दामिनी का दर्द हर किसी के जुबान पर रहा लेकिन फिर भी लगातार वर्ष भर कितनी दामिनी हवस का शिकार होती रहीं, कहीं पांच वर्ष की बच्ची कहीं 18 वर्ष की युवती.... लेकिन, मुंबई की महिला पत्रकार, तेजपाल कांड में शिकार महिला पत्रकार और आशाराम की शिकार युवती के अतिरिक्त अधिकतर एक दिन का समाचार बनकर रह गयीं। घटनाएं हजारों हुई लेकिन चर्चा सिर्फ कुछ की। सबक के लिए क्या ये काफी नहीं है? बेटियां आने वाली दुनिया की आधार है उनपर अत्याचार-अपमान और आने वाले सुखमय भविष्य की कामना बिल्कुल विरोधाभासी बातें हैं। हर क्षेत्र में बढ़कर बेटियों ने साहस का परिचय दिया है तो फिर सम्मान की रक्षा के लिए उनका सिर न उठना किसी तूफान के आने की दस्तक भी तो हो सकती है!
राजनैतिक धरातल पर भ्रष्टाचार की लड़ाई रंग लाती दिखाई अवश्य दी पर राजनीति को उथल-पुथल कर डालने वाले अन्ना और अरविन्द केजरीवाल के बीच सोच का अंतर भी स्पष्ट दिखाई दिया। सोच मुश्किल लग सकती है लेकिन हमें इसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आता है और वह है लोगों में अमन चैन की चाहत अब भी बाकी है। इसलिए यह कहना सर्वथा सत्य है कि जनता दिखावे, लूट खसोट और राजनीति की गंदगी से ऊपर उठकर परिवर्तन का एक नया दौर देखना चाहती है।
पूरे वर्ष राजनीतिक सामाजिक उठापटक का दौर चला। प्राकृतिक घटनाओं से देश-विदेश सभी प्रभावित हुए। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कश्मकश भरा यह साल हर पल आने वाले वर्षों के लिए नये संकेत देता रहा लेकिन कौन इन संकेतों को कितना समझे, माने या आत्मसात करे यह समय बतायेगा, पर यह तो सच है कि समाज, पर्यावरण, राजनीति या मन:स्थिति की बातें जिनकी भी हो उनकी अपनी भाषा होती है। उस भाषा को परखकर समय रहते अपनाएं तो शायद यह नया वर्ष और आने वाले हर वर्ष हर्ष से परिपूर्ण हो सकते।

                                                                                                                                   - उर्वशी उपाध्याय

Sunday 22 September 2013

डेंगू का उपचार एक्यूप्रेशर विधि से

पिछले कई वर्षों की भांति इस वर्ष भी डेंगू का कहर समाज को डराने लगा है। गत वर्ष देश में डेंगू के 50 हजार से अधिक दर्ज मामले सरकारी अस्पतालों के हैं, जिनमें निजी अस्पतालों के मामले शामिल नहीं हैं। मात्र इलाहाबाद में ही 2012 में लगभग 25 मामले प्रकाश में आये जिनमें 4 की मृत्यु समय पर रोग की पहचान या उपचार न हो पाने के कारण हो गई थी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि डेंगू लाइलाज है परन्तु यह अवश्य है कि इसकी जानकारी देर से हो पाती है और प्लेटलेट चढ़वा पाने में देरी के कारण अक्सर यह रोग जानलेवा साबित होता है।
सामान्य सा लगने वाला बुखार यदि बदलते मौसम में आया है तो हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। डेंगू के संक्रमण के लगभग चार-पॉच दिनों के बाद डेंगू के लक्षण प्रकट होते है। अत: जॉच आदि के दौरान लगने वाला समय मरीज के लिये खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है ऐसी परिस्थितियों में हमें हमारा प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत बनाये रखने और बाह्य संक्रमण से रक्षा करने के लिये अपनी शरीर की आंतरिक ऊर्जा को पुष्ट करने की आवश्यकता है। शरीर की इसी ऊर्जा को पहचान कर डेंगू जैसी भयावह बीमारी से निपटने के लिये एक्यूप्रेशर संस्थान इलाहाबाद ने तमाम शोध किये और साथ ही कई असाध्य रोगों से ग्रस्त रोगियों के साथ ही डेंगू के कई मरीज स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सके हैं।
पंचतत्व सिद्वांत पर आधारित एक्यूप्रेशर की तमाम प्रचलित धाराओं के साथ आयुर्वेद के दस द्रव्यों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, काल, दिशा, मन, आत्मा, तम) और शरीर क्रिया विज्ञान के वर्तमान स्वरूप के समन्वय द्वारा तैयार आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर श्री जे.पी. अग्रवाल के संरक्षण में अनेक असाध्य एवं संक्रामक कहे जाने वाले रोगों में कारगर साबित हो रही है।

विशेषज्ञ के नजरिये से
संस्थान के वरिष्ठ प्रवक्ता एवं संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हृदयरोग विभाग में शोध सहायक डा0 बृजेन्द्र पाण्डे के अनुसार कुछ सामान्य लक्षणों को देखते हुए डेंगू का अन्दाजा लगाया जाता है जो कि जॉच के बाद ही स्पष्ट हो पाता है। संक्रमण के कारण रक्त में मौजूद प्लेटलेट की संख्या बहुत तेजी से घटने लगती है और डेंगू वायरस के प्रभाव के कारण बनने की प्रक्रिया बन्द हो जाती है। प्लेटलेट दरअसल रक्त में थक्का बनाने वाली कोशिकायें हैं जो लगातार बनती और नष्ट होती रहती हैं। यह कोशिकायें रक्त में एक से तीन लाख की संख्या में पाई जाती हैं। इन प्लेटलेट के माध्यम से शरीर में मौजूद छोटी छोटी रक्त नलिकायें स्वस्थ हो जाती है और प्लेटलेट के थक्का बनाने की प्रक्रिया से रक्तस्राव रोकना संभव हो पाता है। जब इनकी संख्या तीस हजार से कम हो जाती है तो शरीर के अन्दर रक्तस्राव होने लगता है जिससे रक्त मल, मूत्र, नाक कान से बाहर आने लगता है। कई बार रक्तस्राव शरीर के आंतरिक भागों में होता है जिससे बैंगनी रंग के धब्बे त्वचा पर दिखायी देता है। यह स्थिति अक्सर अनदेखा करने के कारण जानलेवा साबित होती है।
अगर कुछ मलेरिया जैसे लक्षण बदलते मौसम में नजर आयें तो आवश्यक है कि आप तुरन्त सतर्क हो जायें और एक्यूप्रेशर उपचार का लाभ प्राप्त करें। जॉच की प्रक्रिया लम्बी हो सकती है परन्तु एक्यूप्रेशर की समयपूर्व रोग को पहचानने की क्षमता आपको रोग की आक्रामकता से बचा सकते है। मैं स्वयं कई बार इस उपचार का लाभ ले चुका हूँ और इसकी क्षमता पर मुझे कोई संदेह नहीं है।

कारण-
1. एसिड एजिप्ट मात्र मच्छर के काटने से होता है
2. यह मच्छर आमतौर पर दिन में काटते हैं।
3. लक्षण देर से प्रकट होना इस रोग को जानलेवा बना देता है।
4. डेंगू का संक्रमण एक से दूसरे को नहीं होता परन्तु उस मच्छर द्वारा हो सकता है जिसने संक्रमित व्यक्ति को काटा है।
5. डेंगू मच्छर गंदे या साफ रुके हुए पानी में पैदा होते है।

लक्षण-
1. कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र (जो लोग अक्सर बीमार होते हों) वाले लोगों में जल्दी प्रकोप हो सकता है।
2. कंपकंपी के साथ तेज बुखार आता है।
3. इसका बुखार बदलते मौसम में खासतौर पर बरसात के आस-पास होता है।
4. प्रत्येक अंग, मांसपेशियां एवं हड्डियों तक में असह्य पीड़ा।
5. सिर दर्द, गले में दर्द के साथ कमजोरी।

एक्यूप्रेशर के नजरिये से:
श्री जे0पी0 अग्रवाल जी ने बताया कि एक्यूप्रेशर संस्थान द्वारा त्रिदोष, धातु, मल आदि के आयुर्वेदिक विश्लेषण को आज की प्रचलित विधा के नजर से विश्लेषण करते हुए हॉथ एवं पैर के कुछ बिन्दुओं पर दबाव देकर उपचार किया जाता है जिसके लिये छोटे छोटे मैगनेट का प्रयोग किया जाता है। उपचार ऊर्जा पर आधारित है अत: औषधि का प्रयोग नहीं किया जाता इसलिये साइड इफेक्ट भी नहीं होता।
डेंगू संक्रामक रोग है जो कि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को नहीं होता परन्तु डेंगू वायरस के वाहक एसिड एजिप्ट, मच्छर के काटने या डेंगू संक्रमण से ग्रस्त किसी व्यक्ति के बाद स्वस्थ व्यक्ति को सामान्य मच्छर के काटे जाने से हो सकता है। इस प्रकार के रोगों में लाल एवं श्वेत रक्तकण और प्लेटलेट आदि शरीर के चयापचय सम्बन्धी तत्व प्रभावी होते हैं। प्रारम्भ में तीव्र कंपकपी के साथ ज्वर आना, हॉथ पैर में तीव्र वेदना, चेहरा रक्तिम एवं नेत्र लाल रहते हैं। हॉथ पॉव की त्वचा पर लाल रक्त के निशान आ जाते है। नाक एवं हॉथों से रक्त स्राव हो सकता है। यह स्थिति रोग की गंभीरता की परिचायक है। 
इसका उपचार आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर के दृष्टिकोण से किया जा सकता है। डेंगू की अवस्था में निर्धारित बिन्दु पर उपचार देने से प्लेटलेट की संख्या में वृद्वि होने लगती है जिसके लिये रक्त में पित्त की मात्रा को कम करके और कफ की मात्रा को बढ़ाकर उपचार दिया जाता है जैसे जैसे तापमान कम होने लगता है प्लेटलेट की संख्या तेजी से बढ़ने लगती है। साथ ही संक्रमण निकालने और रोगी का प्रतिरोधी तंत्र मजबूत करने के लिये भी बिन्दु प्रयोग किये जाते हैं। एक्यूप्रेशर संस्थान इलाहाबाद में इस विधि से नि:शुल्क उपचार दिया जाता है जिसकी अनेक शाखायें अन्य शहरों में भी उपलब्ध हैं जहॉ उपचार प्राप्त किया जा सकता है। समुचित स्वास्थ्य लाभ के लिये बिन्दुओं का सही चयन एवं प्रयोग आवश्यक है। 


उपचार प्रबन्ध 
काला गोला - मैगनेट का पीला भाग
सफेद गोला - मैगनेट का सफेद भाग

























1- Both RF 4th Spr- 2,3,4,7 sed. 5,6 tone 
2- Lt Thumb all LVM - 0 tone 9 sed.
3- Rt Thumb 1/2 LHM - 3,4 sed. 5,6 tone 
4- Both SF 'V' Jts. - 3,4 sed. 5,6 tone
5- Rt RF 9th Spr - 3,4 sed. 5,6 tone
Lt RF o Spr -  3,4 sed. 5,6 tone



                                                                                                       - उर्वशी उपाध्याय

Sunday 30 June 2013

कुदरत के इस कहर का जिम्मेदार कौन?


विकास एवं विनाश के बीच की घटती खाईं का अद्भुत नमूना उत्तराखण्ड की दैवीय आपदा को समझा जा सकता है। विकास के रास्ते विनाश की ओर बढ़ने की सहज इच्छा ने ही उत्तराखण्ड को एक अलग राज्य के रूप में स्थापित किया। दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्तार से विकास की तमाम योजनाएं तैयार की गयीं। प्रकृति की अनुपम छटा से परिपूर्ण आस्था के तमाम आयाम अपने में समेटे हिमालय की ये वादियां निश्छल झरने, स्वच्छ जलकुण्ड, झील, नदियां एवं तमाम सरोवरों की प्राकृतिक छवि को अपने आंचल में समाए हुए है। पर अचानक हिमालय की हरियाली खुशहाली एक विभीषिका की शिकार हो गयी। क्या यह आपदा दैवीय हैं? हमारा इससे कोई सरोकार नहीं? हम जिम्मेदार नहीं हैं? यह सिर्फ सोचने की नहीं बल्कि एक विश्वव्यापी चिन्तन की है क्योंकि जिस प्रकृति के आगे हम पंगु है उसके रौद्र रूप को हम झेल नहीं सकतें, उसे संभाल नहीं सकते, रोक नहीं सकतें तो उसके साथ छेड़छाड़ कर उसे चुनौती देने का हक किसे है?
मंदिर का पट हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी खुला, भक्त और भगवान दोनों पहले भी थे आज भी, पर परिदृश्य काफी कुछ बदला हुआ ... जो खाका 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग द्वारा तैयार किया गया था आज गौण हो चुका है। उस तस्वीर में पर्वतों के अलौकिक दृश्य के मध्य हरीभरी वादियों से घिरा सिर्फ मंदिर दिखता था। उस परिदृश्य से आज की तस्वीर की तुलना करें तो मन व्यथित हो जाता है ... आज मंदिर के आस-पास अतिक्रमण कर मकान और व्यवसायिक भवन बन गए हैं। जिससे उसका वहां का वह दृश्य नजर नहीं आता जो कि हमारे पूर्वजों ने केदारनाथ धाम के रूप में हमें विरासत में दिया था।
समय के साथ स्थान का जो भी दुरूपयोग हुआ, प्रशासनिक तौर पर इसे व्यवस्थित रूप से हटाया जा सकता था। इस पर ध्यान नहीं दिया गया अत: यहां जनसंख्या का घनत्व बढ़ता गया और जन हानि धन हानि का यह नमूना सामने आया। ऐसा नहीं कि भूस्खलन, भूकंप, बादल फटने आदि के घटनाएं पहले नहीं हुयी हैं। पर्वत टूटते हैं... तो हिमालय भी टूटता हो रहा होगा ... भूकंप भी आया होगा, कुछ बना होगा तो कुछ बिगड़ा भी होगा। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि प्रकृति का इतना भयावह कोप देखना पड़ा?
मानवीय आबादी की वृध्दि ... सुख सुविधाओं की चाह ... ने मानवीय बस्तियों को पहाड़ों तक विस्तृत कर दिया है। यह विस्तार इस कदर हुआ कि प्रकृति का सन्तुलन खोने लगा ... कहीं वन कटते गए ... कहीं लगातार खनन होता रहा ... कहीं पहाड़ों में विस्फोट कर पत्थर निकाले गए ... कहीं बांध पर बांध बनाए जाने लगे ... बहुमंजिली इमारतों का जाल फैला ... तो पहाड़ों पर रेल हवाई जहाज ... एवं आवागमन का चक्र भी चला, यही नहीं देश की जीवन धारा मां गंगा को भी बांधों में जकड़ दिया गया। पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे प्रकृति का संरक्षण हो सके। दूर-दूर तक हरियाली का नामों निशां नहीं है। कंक्रीट के जंगलों ने हर तरफ कब्जा कर लिया है। ... यह विस्तार विनाश का संदेश वाहक तो है, पर उस संदेश को कोई नहीं पढ़ सका और विनाश की इस विभीषिका को आने से रोक पाना असंभव हो गया ... ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे, भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी, भूकंप के बार-बार आने की खबरें आम होने लगीं। अगर पिछली पूरी सदी पर नजर डाले तो न तो ऐतिहासिक साक्ष्य ऐसे है और न तो हमें पूर्वजों से ऐसी प्रमाणिक बातें पता चली हैं कि प्रकृति के कोप की इतनी भयावह तस्वीर पहले आयी होगी।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद खुदाई बांध परियोजनाओं, नदियों को बांधने या दिशा बदलने पहाड़ों में सुरंग बनाकर नदियों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में दिन रात एक कर प्रकृति को चुनौती देने का कार्य लगातार हुआ है। प्रकृति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति कई गुना तेज हुयी है। और उसका दंश झेलने के लिए हम बेबस भी हैं।
पिंछले एक दशक से उत्तराखण्ड में सड़कें बनाने, तमाम प्रकार के खनिजों के लिए किए गए खनन, रेत, बजरी आदि की खुदाई, विद्युत परियोजनाओं की तेज रफ्तार ने जो अनियन्त्रित वातावरण बनाया है उसका दुष्प्रभाव नदियों की दिशा एवं दशा के वर्तमान स्वरूप के निंर्धारण के लिए पर्याप्त है। यही कारण है कि 1991 एवं 1998 में आए भूकंप से तबाही का आलम वर्तमान स्थितियों की तरह भयावह नहीं था।
विकास के तमाम आयाम प्रकृति के कोप के आगे बेबस हैं... जैसे इस बार अलखनन्दा, घौली, भागीरथी, मंदाकिनी, विष्णु गंगा आदि ने अपना विकराल कोप दिखाया है, सबक के लिए काफी है। दूर-दूर तक मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ बचाव के तमाम प्रयास भले ही किए जा रहे हैं लेकिन परिस्थितियों का साम्य होना जितना आवश्यक है उतना ही दुष्वार है उनका साम्यावस्था में बने रहना। हर कदम पर प्रकृति की विभीषिका के नए नमूने नजर आते हैं। लेकिन विकास के माध्यम से विनाश के इस खेल में हमारी भागीदारी कब तक और कितनी रहे इस पर सोचना ... समझना और अमल करना अब हमारी आवश्यकता नहीं रह गयी बल्कि अब यह अपरिहार्य हो चुका है।
                                                                - उर्वशी उपाध्याय

Friday 28 June 2013

महाकाल


दब गये अम्बर तले
थोड़े से बाशिन्दे
वहीं रहते थे वो...
अरे...
वहीं भई...
आकाश गिरा था जहां!
वही आकाश
जिसे बेध एक रह गुजर
उत्तर चला - दक्षिण चला
पूरब चला - पश्चिम चला
आंख थी पथरा गयी
देखते - देखते
पत्थर - पत्थर - पत्थर
पानी - पानी - पानी
कुहरा का एक झोंका फिर आया
स्मृतियों की आंधी बनकर
मेरा एक घर था...
बच्ची थी, पत्नी, एक बाबा बुजुर्ग
होंगे सब सोए हुए...
चलों चले, अब घर की ओर!
घर? लेकिन कहां?
क्या होता है घर?
यहां पर तो
इक नयी सृष्टि की
कल्पना हो सकती है
कल्पना...?
भला वो क्या है?
शायद अब शुरू होगा सबकुछ...
पर खत्म हुई थी जो
वो दुनिया थी कहां?
जो खोज रहा था अस्तित्व खोया
वो भी था चलता बना,
कह गया जाते-जाते
पत्थर हैं सब...
पानी - पानी - पानी
वृक्ष हैं.. मां की गोद में मुंह छिपाए
धुंआ - धुंआ - धुंआ
जो गिरा था वह आकाश था
उसने अकेले ही देखा था
यह सारा मंजर
कोई साथ न था
और आज
उसके संग  उसका ही हाथ न था...
एक बार फिर
जीता महाकाल था
महाकाल....।
                                            उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा'

Wednesday 5 June 2013

दुनिया की रचना

कहते हैं लोग
धरती के
विशालतम स्थलों पर
फैली दुनिया
सुन्दर है / स्वच्छ है
आडम्बरों से दूर
यह
बहुत बड़ी है,

प्रबल है चाह
भावनाओं में बल है
इच्छाएं / कल्पनाएं
सभी कुछ,
हमारे
मर्म से जुड़ी हैं,

कोशिशों का संसार है
विकास है / विस्तार है
अह्लादित संसार की..
कर्तव्य की.. अधिकार की..
हर अनुभूति बड़ी है,

सब सच है
पर,

वो लोग,
यह मानने से
इन्कार नहीं करते
कि,
दुनिया की रचना ही
दुनिया के सामने
काल की तरह
मुंह बाए खड़ी है।
                                    - उर्वशी उपाध्याय