Friday 28 June 2013

महाकाल


दब गये अम्बर तले
थोड़े से बाशिन्दे
वहीं रहते थे वो...
अरे...
वहीं भई...
आकाश गिरा था जहां!
वही आकाश
जिसे बेध एक रह गुजर
उत्तर चला - दक्षिण चला
पूरब चला - पश्चिम चला
आंख थी पथरा गयी
देखते - देखते
पत्थर - पत्थर - पत्थर
पानी - पानी - पानी
कुहरा का एक झोंका फिर आया
स्मृतियों की आंधी बनकर
मेरा एक घर था...
बच्ची थी, पत्नी, एक बाबा बुजुर्ग
होंगे सब सोए हुए...
चलों चले, अब घर की ओर!
घर? लेकिन कहां?
क्या होता है घर?
यहां पर तो
इक नयी सृष्टि की
कल्पना हो सकती है
कल्पना...?
भला वो क्या है?
शायद अब शुरू होगा सबकुछ...
पर खत्म हुई थी जो
वो दुनिया थी कहां?
जो खोज रहा था अस्तित्व खोया
वो भी था चलता बना,
कह गया जाते-जाते
पत्थर हैं सब...
पानी - पानी - पानी
वृक्ष हैं.. मां की गोद में मुंह छिपाए
धुंआ - धुंआ - धुंआ
जो गिरा था वह आकाश था
उसने अकेले ही देखा था
यह सारा मंजर
कोई साथ न था
और आज
उसके संग  उसका ही हाथ न था...
एक बार फिर
जीता महाकाल था
महाकाल....।
                                            उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा'

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