Monday 20 January 2014

बहुत कुछ सिखा गया............. बीता साल

हर वर्ष की तरह वर्ष 2013 भी बीत गया। एक नये वर्ष में हमनें चाहे अनचाहे कदम तो रख ही लिया है, क्योंकि काल है कभी रुकेगा नहीं .... हमेशा चलता रहेगा .... इस संदेश के साथ कि जीवन गतिमान है .... या यूं कहें कि यह जीवन तभी तक है जब तक गति है.... कोशिशें सकारात्मक हो तो गति निर्बाध होगी .... आशाओं को उड़ान मिलेगी .... हौसलों को पंख लगेंगे और... ठीक वैसा ही होगा जो एक सुखद एहसास के लिए जरूरी है।

बहुत सारी खट्टी मीठी यादों को समेटे यह नया वर्ष शुरू हो चुका है। बीते वर्ष की तमाम ऐसी बातें जिन्हें हम सोचकर खुश तो हो तो सकते हैं लेकिन उनसे कहीं ज्यादा वह बातें हैं जो कि मन में एक अलग टीस पैदा करती हैं। तमाम कोशिशें क्रांतिकारी सोच का आधार बनीं तो कुछ ने आशाओं के लिए नयी राह बनायी, लेकिन इन सबके बीच कुछ सोचने व सबक लेने की बातें भी है जो बीते वर्ष में तमाम मानवीय कुकृत्यों प्राकृतिक घटनाओं से प्रभावित रहीं। जिनसे कुछ सीखना कोई अपराध नहीं हमारी जरूरत है भविष्य के सुखमय आधार के लिए।
गत वर्ष सदी का महानतम एवं विश्व का सबसे बड़ा मेला कहा जाने वाला महाकुंभ (प्रयाग) देश विदेश के करोड़ो श्रध्दालुओं में आस्था और कौतुहल का केन्द्र रहा। आस्था पर अंधविश्वास और जनसंख्या का समागम इतना भारी पड़ेगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा। गंगा - यमुना - सरस्वती की त्रिवेणी पर जाने कब से यह परम्परा चली आ रही है, जाने कितनी बार यह भूमि तमाम श्रध्दालुओं की बलिबेदी बन चुकी है, पता नहीं? लेकिन आस्था के नाम पर उमड़ता जन सैलाब, 2013 के महाकुंभ में हुई भगदड़ और इलाहाबाद जंक्शन पर भगदड़ से हुई मौतों के बावजूद शायद ही थम पाये।
उत्तराखण्ड में आयी दैवीय आपदा की चर्चा शांत हो चुकी है, धीरे-धीरे पूरी तरह खबरों में दफ्न भी हो जायेगी और अगली किसी त्रासदी के समय वह पन्ने जब पलटे जायेंगे तो शायद इसकी चर्चा हो इस पर पर्यावरण चिंतक अपनी-अपनी व्याख्याएं करेंगे, अनेक प्रकार की परिभाषाएं तैयार की जाएंगी, टीका-टिप्पणियों का दौर चलेगा और फिर सबकुछ थम जायेगा। लेकिन विकास के नाम पर होती विनाश की खेती न थमी है और शायद ही कभी थमें। हजारों जाने गयी, हजारों लोग लापता हुए, जीव-जन्तु, मानव या यूं कहें कि बहुत बड़ा भू-भाग विनाश की इस लीला में समा गया। बड़ी संख्या में चारों धाम की यात्रा पर निकले तीर्थ यात्री केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री से घर नहीं लौट सके, जिनमें से कुछ की लाशें मिली कुछ प्रयाग और बनारस के घाटों तक पहुंचे और शेष कहां गये पता नहीं?
इन सबके बीच मौजूद संकेत को यदि समझना चाहें तो समझ जरूर सकतें हैं पर विकास के नाम पर पूंजीवाद का पनपता संसार हर किसी को प्रभावित कर रहा है, सो सबक लेना जरूरी नहीं लगता।
मानवीय संवेदनहीनता का पैगाम देती कई घटनाएं एक एक कर पूरे वर्ष सामने आती रहीं। बोधगया में हुआ आतंकी हमला इसका साक्षात प्रमाण है। पूरे विश्व को अमन का पैगाम देने वाले भगवान बुध्द की कर्म स्थली बोधगया के महाबोधि मंदिर पर आतंकवाद का साया पहुंच पाना, एक के बाद एक नौ धमाकों का लगातार होना एक ओर जहां सुरक्षा की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह पैदा करते हैं वहींनाफरत और आक्रोश से बिखरती मानवीय सोच का परिणाम भी हो सकते हैं? मुजफ्फर नगर दंगे की आग ने हजारों परिवारों को बेनूर कर दिया, जाने कितनी जिन्दगियां इस हाड़ कपा देने वाली ठंड में आकाश के नीचे हैं, उनका घर होगा, कोई दुनिया होगी पर उसे एक दहशत की तरह भुला देना चाहते हैं। हर कोई मौत के तांडव की उस भयावह तस्वीर से उबरकर नये जीवन की ओर बढ़ जाना चाहता है, पर रास्ते साथ दें जरूरी नहीं।
पिछले दिसम्बर में बस में बेबस दामिनी का दर्द हर किसी के जुबान पर रहा लेकिन फिर भी लगातार वर्ष भर कितनी दामिनी हवस का शिकार होती रहीं, कहीं पांच वर्ष की बच्ची कहीं 18 वर्ष की युवती.... लेकिन, मुंबई की महिला पत्रकार, तेजपाल कांड में शिकार महिला पत्रकार और आशाराम की शिकार युवती के अतिरिक्त अधिकतर एक दिन का समाचार बनकर रह गयीं। घटनाएं हजारों हुई लेकिन चर्चा सिर्फ कुछ की। सबक के लिए क्या ये काफी नहीं है? बेटियां आने वाली दुनिया की आधार है उनपर अत्याचार-अपमान और आने वाले सुखमय भविष्य की कामना बिल्कुल विरोधाभासी बातें हैं। हर क्षेत्र में बढ़कर बेटियों ने साहस का परिचय दिया है तो फिर सम्मान की रक्षा के लिए उनका सिर न उठना किसी तूफान के आने की दस्तक भी तो हो सकती है!
राजनैतिक धरातल पर भ्रष्टाचार की लड़ाई रंग लाती दिखाई अवश्य दी पर राजनीति को उथल-पुथल कर डालने वाले अन्ना और अरविन्द केजरीवाल के बीच सोच का अंतर भी स्पष्ट दिखाई दिया। सोच मुश्किल लग सकती है लेकिन हमें इसका एक सकारात्मक पक्ष नजर आता है और वह है लोगों में अमन चैन की चाहत अब भी बाकी है। इसलिए यह कहना सर्वथा सत्य है कि जनता दिखावे, लूट खसोट और राजनीति की गंदगी से ऊपर उठकर परिवर्तन का एक नया दौर देखना चाहती है।
पूरे वर्ष राजनीतिक सामाजिक उठापटक का दौर चला। प्राकृतिक घटनाओं से देश-विदेश सभी प्रभावित हुए। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कश्मकश भरा यह साल हर पल आने वाले वर्षों के लिए नये संकेत देता रहा लेकिन कौन इन संकेतों को कितना समझे, माने या आत्मसात करे यह समय बतायेगा, पर यह तो सच है कि समाज, पर्यावरण, राजनीति या मन:स्थिति की बातें जिनकी भी हो उनकी अपनी भाषा होती है। उस भाषा को परखकर समय रहते अपनाएं तो शायद यह नया वर्ष और आने वाले हर वर्ष हर्ष से परिपूर्ण हो सकते।

                                                                                                                                   - उर्वशी उपाध्याय