Sunday 2 September 2012

पूज्य गुरुजन को नमन


शत् नमन, शत्-शत् नमन, आज है शिक्षक दिवस।
प्रेम निष्ठा और लगन का, आज है अनुपम दिवस।
शत् नमन शिक्षक दिवस पूज्य गुरुजन को नमन।
वन्दे उस माटी को जिसमें जनमा यह भारत रतन।
आज के दिन इस धरा पर आया था एक दार्शनिक 
हिन्द देश को जो दिखा गया मार्ग आधुनिक
विश्व में चमके थे जिससे वो थी उनकी ही लगन।
शत् नमन शिक्षक दिवस पूज्य गुरुजन को नमन।
हर पल समर्पित ज्ञान पर हर भाव ताजगी लिए
एक व्यक्ति था पर दिव्य था जीवन में सादगी लिए
योग थे वह कर्म के जीवन सरल, भाषा मधुर
शान थे वे देश के प्रतिपल समर्पण में निपुण
हर इक डगर व्यवधान फिर भी बढ़ चले उनके चरण
शत् नमन शिक्षक दिवस पूज्य गुरुजन को नमन।
जिनके पावन जन्म पर आता है यह शिक्षक दिवस।
जिनके कर्मों ने दिया, हम सबको यह पावन दिवस
श्रद्धा है उनमें हमारी, रूप उनका आप में,
आपके अनुचर हैं हमसब उनकी महिमा आप में
आपका अर्चन करूं मैं पाऊं ज्योर्तिमय नयन।
शत् नमन, शत्-शत् नमन पूज्य गुरुजन को नमन।
वन्दे उस माटी को जिसमें जनमा यह भारत रतन।

                                                       - उर्वशी उपाध्याय

Friday 17 August 2012

मेरी पहचान


जिन्दगी को जीने की 
तमन्ना लिए
चली जा रही थी मैं

सोचती थी

जिन्दगी
जीना है तुझे, मुझकों
पाना है तेरी मंजिल को
बस थोड़ी सी परेशानी होगी मुझे
तुझे जीने में
क्योंकि
कुछ व्यर्थ आवश्यकताओं को 
पूरा करने के लिए
फैलाना पड़ेगा हाथ मुझे
आभावों से घिरे गांव में
माना कि
मुझे जीनें पर 
बनेगी मेरी पहचान
पर मिट न जाए कहीं पहले ही
वास्तविकता की
तूफानी लहरों में फंसकर
जिन्दगी से परे
मेरी पहचान।
                                   - उर्वशी उपाध्याय

बोलती पत्थर


एक स्त्री
नारी अस्तित्व को
सुरक्षित रखने का
प्रयत्न करती
पेट पालती है
सड़क पर पड़े पत्थरों को तोड़कर
अचानक,
हाथ थम जाते हैं
सतब्ध रह जाती है वो
एक अनजानी बात
मन में पाकर
सोचती है
मैं तोड़ रही हूँ जिस तरह
इन बेजान पत्थरों को
हम सबको भी तोड़ रहा है कोई
नारी टूट रही है
उसी तरह
जिस तरह हमारे हाथों
टूटता है पत्थर
क्यूं टूट रही है नारी
क्यू लुट रहा है उसका अस्तित्व
हां शायद कारण यह हो
कि
वह भी है पत्थर
बोलने वाली किन्तु खामोश
बोलती पत्थर।
                                        - उर्वशी उपाध्याय

परिचय


एक बादल का टुकड़ा
मेरी ही तरह
धूम रहा था
उद्देश्यहीन होकर
अनजान था वह मुझसे
मैं उससे अपरिचित थी।
फिर,
एक सुबह मैं भी बढ़ी
बढ़ा वह भी मेरी ओर
लिए संग में एक डोर
डोर ही तो सहारा थी
अब मैं उससे परिचित थी।
मैं और वो बादल
मिल गए थे
बरस पड़े थे हम दोनों
पर,
कितनी घड़ी के लिए
शायद,
बरसे थे हम सदियों बाद
जिससे मैं सदियों पहले परिचित थी
कुछ सोचा
तब मुझको
तकदीर पर रोना आया
क्योंकि?
बदल गया था रुख
बादल के उस टुकड़े का
अब थी जो परिस्थिति
मैं युगों से
उससे परिचित थी।
                                - उर्वशी उपाध्याय

Monday 13 August 2012

एकता


सपनों का महल
पलको तले
बनता बिगड़ता शबनम की तरह
बूंद बूंद बन
टपकता जा रहा था
एक राही के मन
जिसका,
कोई मजहब कोई ईमान नहीं था
धर्म ग्रंथ एक थे
कोई 'गीता' कोई 'कुरान'नाहीं था
हां एक धर्म था
भाईचारे का
एकता और रक्त बंधन का
यादें थी किसी गम की
आभास मधुर क्रंदन का
छाई मन में कुरान की बातें
याद आयी गीता की वाणी
मक्का मदीना याद आया
एहसास कभी वृंदावन का

                                                - उर्वशी उपाध्याय

Saturday 11 August 2012

मैंने देखा है...


हाथों को यूं ही क्यों
असहाय छोड़ रखा है
पत्थर हैं,
दूर-दूर तक सामने तुम्हारे
सो, तुम निष्क्रिय हो गये!
उठो-चलो-संग स्वयं के
विश्वास का हथियार लो,
मैने,
वीराने को उपवन होते देखा है।

पत्थर में दूब जमे-न सही
चहको और महको
जग को सुगन्ध दो,
मैंने,
कोयले को भी कुन्दन होते देखा है।

अगर तुम्हें पसंद हो
सूरज को तुम चंदा कहो
पर न डरना तुम जहाँ से
पूरब को जब पश्चिम कहो
मैने,
उसके पागलपन को जनमत होते देखा है।
यूं ही वो रोता रहा था
फूलों को लिए हुए
मुस्कुराना हार कर भी
तुम काटों के बीच में
मैने,
तपते रेगिस्तान को सतलज होते देखा है।

भविष्य की कोख में
किलकारियां जो दफ्न सी हैं
क्यूं आंखों में निर्जन सपने..
फुलवारियां बदरंग नहीं हैं
मैने,
निर्जन से उस वन को मधुबन होते देखा है।

हम साथ चले थे बहुत दूर
नदी के किनारों की तरह
रुक गयी थी सोचकर
सान्निध्य संभव.. है?..नहीं?
पर...
मैंने,
धरती अम्बर का संगम होते देखा है।
                                                  - उर्वशी उपाध्याय

एहसास


आसमान में फैले हुए
बादलों के टुकड़े,
गीत गा रहें होंगे
अपने मिलन के,
प्रेम नीर बहाएंगे,
प्यासों की प्यास
बुझाने के लिए
खुश होंगे किसान,
चहकेगें आज
पक्षियों के झुरमुट,
गीत गांएगें मिलकर
करेंगे
वर्षा का अभिनन्दन,
और
आज का दिन ही
वह दिन भी होगा
जब,
खुले नील आकाश के नीचे,
रहने वाले
असहायों को,
अहसास होगा
अपने बेघर होने का!

                                                                                      - उर्वशी उपाध्याय

65 बरस की आजादी...


स्वतंत्रता की 65वीं वर्षगांठ पर एक बार पुन: यह सोचने की आवश्यकता है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूर्वनियोजित कल्पना का साकार रूप क्या यही था जिसे हम देख रहें हैं? कहीं लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात् करने के साथ ही हमने कुछ ऐसी प्रवृत्तियों को तो नहीं अपनाया है जो हमारे देश की भौगोलिक एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत को ध्वस्त करने का दुष्चक्र रच रही है?
एक तरफ हम लोकतांत्रिक धरातल को पुष्ट करने की बात करते हैं तो वहीं दूसरी ओर असमानता, गरीबी, भुखमरी, हिंसा, बलात्कार और कन्याभ्रूण हत्या जैसी बहुत सी समस्याएं सर उठाकर दहाड़ लगा रही है, लोकतंत्र की यह भयावाह तस्वीर किसी एक स्थान पर नहीं है, हर ओर यह व्याप्त है और इन सबसे ऊपर है राजनैतिक नीतियों की शिकार होती जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का अनवरत सिलसिला...
बीते दिनों कुछ बातें चर्चा की केन्द्र में थी जिनमें एक-एक कर लगातार होते जा रहे घोटालों के खुलासे का सिलसिला लिंगानुपात की बढ़ती खाई, हिंसा की बढ़ती घटनाएं, गरीबी का निर्धारण और सफेदपोश नेताओं की काली करतूते हर जुबान पर थी।
जहां जनगणना के अनुसार लिंगानुपात में लगभग 20 प्रतिशत का अन्तर आ चुका है वहां लगातार बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएं समाज के हर तबके में तेजी से बढ़ रही है तो ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब इस दरिंदगी से सुरक्षा का उत्तरदायित्व निभाने वाले कानून के रक्षक भी भक्षक की भूमिका में नजर आ जाएं तो लोकतंत्र का शर्मसार होना क्या स्वाभाविक नहीं है?
एक पढ़ी लिखी स्त्री पूरे परिवार को साक्षर करती है पर जब वह आगे बढ़ अपना अस्तित्व सम्भाल कर मुखर होती है तो जाने कौन सी भावनाएं आहत होती है जिससे उनको मिटा देने की साजिश रच डाली जाती है। कहीं मधुमिता के गीत शांत कर दिये जाते है, तो कहीं फिजा की बुलंद आवाज दबा दी जाती है तो कहीं गीतिका की मासूमियत नष्ट कर दी जाती है, कहीं कमला की गोद का शिशु पिता के नाम से महरूम सिसकियां ले रहा है। लोकतंत्र की परिपाटी का कौन सा अध्याय इन्हें अमरमणि या फिर कांडा बनने की आजादी देता है।
मंहगाई का बढ़ता ग्राफ और आंकड़ों में दफ्न होती गरीबी अभी किसी प्रकार शांत नहीं हो पाई थी कि जोर-शोर से तैयारी शुरू हो गयी कि बीपीएल कार्ड धारकों को अब मिलेगा मोबाइल.... भण्डारण न कर सकने से सड़ते अनाज को सुप्रीम कोर्ट तक की कोशिश के बावजूद बांटना जरूरी नहीं, बिजली, स्वाथ्य एवं शिक्षा से महरूम जनता को अन्य किसी सुविधा की कोई आवश्यकता नहीं, बस जरूरी है गरीबों का दिल बहलाने वाला मोबाइल। विकास की राह पर छलांग लगाने का यह तरीका सरकारी नीतियों द्वारा एक साथ कई निशाने लगाने के लिए काफी है। एक ओर इसे 2-जी स्पेक्ट्रम के दलदल में फंसी कम्पनियों और सरकारी सांठ-गांठ को निपटाने का तरीका बनाया जा रहा है या फिर गरीबों को (छब्बीस रुपये गांव में और बत्तीस रुपये शहर में प्रतिदिन कमाने वालों से नीचे गुजर बसर कर रही जनसंख्या) मोबाइल देकर उनके मुंह में जाने वाला दो चार निवालों को भी छीन लेने की शाजिस की जा रही है, या फिर सरकारी खजाने से चुनाव प्रचार का उत्तम तरीका अपनाया जा रहा है। फिर लोकतंत्र की इस तस्वीर में आजादी के कौन से रंग दिखेंगे यह जनता ही देखेगी।
लोकतंत्र का माखौल उड़ाने से कहीं बेहतर होता कि हम वास्तव में उसकी गरिमा को समझ पाते। पूरा नहीं तो थोड़ा ही सही पर लोकतंत्र की उस भावना को आत्मसात् करते, जो कि स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वालों के मन मस्तिस्क में थी और मानवता की भावना अपनाकर हम उन्हें श्रध्दांजलि दे सकें तो इसके लिए उस भावना को फिर से अपनाने का संकल्प लेना होगा।