Monday 10 March 2014

राजनीति की शिकार ... आधी आबादी

देश हित में राजनीति और राजनीति में महिला सहभागिता का सवाल तमाम बौध्दिक गोष्ठियों, सेमिनारों एवं अनेक मंचो पर हमेशा चर्चा का केन्द्र बिंदु रही हैं। कहने को तो सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज जैसी तमाम नेता भारतीय सत्ता राजनीति के आकाश के चमकते नक्षत्र हैं लेकिन सवाल ये है कि इस चमक का दायरा कितना व्यापक- कितना सघन - और कितना विश्वास योग्य है, और कितना विश्वास योग्य है।
भारत में एक बार फिर आम चुनाव सामने हैं और राजनैतिक जोड़तोड़ के दौर शुरू हो चुके हैं। इसी गहमागहमी में ये जानना भी दिलचस्प है कि हर दल का चुनाव मैदान में महिलाओं को अहम भागीदारी देने का दावा है पर दावें कितने कारगर होते हैं यह प्रश्न समय के साथ ही हल हो पायेगा।
भारत उन देशों में से एक है जिसने दशकों पहले ही अपनी बागडोर इंदिरा गांधी के हाथों सौंप दी थी लेकिन आज भी हर स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक नहीं है। पार्टियों में महिला कार्यकर्ताओं से आज भी केवल महिला संबंधी विषयों पर काम कराया जाता है, यह कहकर कि उनका दायरा इतना ही है जबकि सत्य इससे काफी दूर है। दरअसल पुरुष स्वाभिमान महिलाओं का वर्चस्व बर्दास्त नहीं करना चाहता। तभी तो जब देश की नीतियों और महत्वपूर्ण फैसले लेने की बात आती है तो महिलाओं की भूमिका नहीं के बराबर रहती है। फिर भी सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी या फिर जयललिता जैसी नेताएं हमारे सामने हैं जो भारतीय राजनीति के शिखर पर देखी जा सकती हैं। कहीं न कहीं उनका दमदार अस्तित्व वर्तमान राजनीतिक स्ववस्था को चुनौती अवश्य देता है।
एक तरफ बड़े शहरों के कॉर्पोरेट जगत में धीरे धीरे महिलाएं पुरुषों के साथ अपनी जगह बना रही हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं राजनीति में उतर कर अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।
आज भी गरीबी, शिक्षा में कमी या फिर पिछड़े समाज की वजह से महिलाएं आगे नहीं आ पा रही हैं। अगर महिलाएं आगे आती भी हैं तो इसके पीछे किसी न किसी पुरुष का हाथ होना आवश्यक होता है। वरना अपने बलबूते पर समाज में ऊपर आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता। यह कटु सत्य नहीं है बल्कि समाज का एक ऐसा आईना है जो देखने में वीभत्स भी है और शर्मनाक भी, लेकिन देश के कर्णधारों को राजनीति और सामाजिक सरोकारों के मध्य बढ़ती खाई, आवश्यकताओं को दरकिनार कर स्वार्थपरक नीतियों के आगे सोचने की आवश्यकता गैर जरूरी नजर आ रही है।
जब 1996 में महिलाओं के हित में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात आई तो आधी आबादी को सुखद अहसास का एक कारण मिला लेकिन तमाम वादों और बातों के बीच में बातें सिर्फ बातें ही रह गयी। हर बार विपक्ष की तरफ से इस बिल को पीछे धकेल दिया जाता है. 1992 में भारत की लोक सभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत था। समय के साथ साथ यह संख्या बढ़ी लेकिन हर बार नीचे की ओर भी लुढ़की। 1991 में लोकसभा में 8.04 प्रतिशत महिलाएं थीं और 2004 में यह संख्या थोड़ी बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कभी भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 9 से 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सका। कुछ दिनों पूर्व जब महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पारित हुआ तो उम्मीद जगी और कई विधेयक बिना चर्चा के पारित भी किए गये परन्तु यह आरक्षण विधेयक आज भी आम सहमति के नाम पर हो रही राजनीति का शिकार है।
भारत में सबसे ज्यादा उन्नती कर रहे राज्य, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिल नाडू में बहुत कम महिला राजनीतिज्ञ सामने आई हैं जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार में उनकी संख्या कहीं ज्यादा है। छोटी पार्टियों की तुलना में बीजेपी या कांग्रेस ने महिलाओं को कम मौके प्रदान किये हैं। सीपीआईएम ने पिछले चुनावों में 12 प्रतिशत टिकटें महिलाओं को दीं जबकि बीजेपी ने 8 प्रतिशत और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत से कुछ कम।
जीतने लायक उम्मीदवार होने का हवाला देकर महिलाओं को राजनीति से दूर रखना और उनके हक की आवाज को मुखर न होने देने की नीति आरक्षण का समर्थन करने से ध्वस्त न हो जाये.... सवाल बड़ा है तो सतर्कता तो बरतनी ही पड़ेगी?
                                                               - उर्वशी उपाध्याय