Sunday 22 September 2013

डेंगू का उपचार एक्यूप्रेशर विधि से

पिछले कई वर्षों की भांति इस वर्ष भी डेंगू का कहर समाज को डराने लगा है। गत वर्ष देश में डेंगू के 50 हजार से अधिक दर्ज मामले सरकारी अस्पतालों के हैं, जिनमें निजी अस्पतालों के मामले शामिल नहीं हैं। मात्र इलाहाबाद में ही 2012 में लगभग 25 मामले प्रकाश में आये जिनमें 4 की मृत्यु समय पर रोग की पहचान या उपचार न हो पाने के कारण हो गई थी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि डेंगू लाइलाज है परन्तु यह अवश्य है कि इसकी जानकारी देर से हो पाती है और प्लेटलेट चढ़वा पाने में देरी के कारण अक्सर यह रोग जानलेवा साबित होता है।
सामान्य सा लगने वाला बुखार यदि बदलते मौसम में आया है तो हमें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। डेंगू के संक्रमण के लगभग चार-पॉच दिनों के बाद डेंगू के लक्षण प्रकट होते है। अत: जॉच आदि के दौरान लगने वाला समय मरीज के लिये खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है ऐसी परिस्थितियों में हमें हमारा प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत बनाये रखने और बाह्य संक्रमण से रक्षा करने के लिये अपनी शरीर की आंतरिक ऊर्जा को पुष्ट करने की आवश्यकता है। शरीर की इसी ऊर्जा को पहचान कर डेंगू जैसी भयावह बीमारी से निपटने के लिये एक्यूप्रेशर संस्थान इलाहाबाद ने तमाम शोध किये और साथ ही कई असाध्य रोगों से ग्रस्त रोगियों के साथ ही डेंगू के कई मरीज स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सके हैं।
पंचतत्व सिद्वांत पर आधारित एक्यूप्रेशर की तमाम प्रचलित धाराओं के साथ आयुर्वेद के दस द्रव्यों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, काल, दिशा, मन, आत्मा, तम) और शरीर क्रिया विज्ञान के वर्तमान स्वरूप के समन्वय द्वारा तैयार आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर श्री जे.पी. अग्रवाल के संरक्षण में अनेक असाध्य एवं संक्रामक कहे जाने वाले रोगों में कारगर साबित हो रही है।

विशेषज्ञ के नजरिये से
संस्थान के वरिष्ठ प्रवक्ता एवं संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ में हृदयरोग विभाग में शोध सहायक डा0 बृजेन्द्र पाण्डे के अनुसार कुछ सामान्य लक्षणों को देखते हुए डेंगू का अन्दाजा लगाया जाता है जो कि जॉच के बाद ही स्पष्ट हो पाता है। संक्रमण के कारण रक्त में मौजूद प्लेटलेट की संख्या बहुत तेजी से घटने लगती है और डेंगू वायरस के प्रभाव के कारण बनने की प्रक्रिया बन्द हो जाती है। प्लेटलेट दरअसल रक्त में थक्का बनाने वाली कोशिकायें हैं जो लगातार बनती और नष्ट होती रहती हैं। यह कोशिकायें रक्त में एक से तीन लाख की संख्या में पाई जाती हैं। इन प्लेटलेट के माध्यम से शरीर में मौजूद छोटी छोटी रक्त नलिकायें स्वस्थ हो जाती है और प्लेटलेट के थक्का बनाने की प्रक्रिया से रक्तस्राव रोकना संभव हो पाता है। जब इनकी संख्या तीस हजार से कम हो जाती है तो शरीर के अन्दर रक्तस्राव होने लगता है जिससे रक्त मल, मूत्र, नाक कान से बाहर आने लगता है। कई बार रक्तस्राव शरीर के आंतरिक भागों में होता है जिससे बैंगनी रंग के धब्बे त्वचा पर दिखायी देता है। यह स्थिति अक्सर अनदेखा करने के कारण जानलेवा साबित होती है।
अगर कुछ मलेरिया जैसे लक्षण बदलते मौसम में नजर आयें तो आवश्यक है कि आप तुरन्त सतर्क हो जायें और एक्यूप्रेशर उपचार का लाभ प्राप्त करें। जॉच की प्रक्रिया लम्बी हो सकती है परन्तु एक्यूप्रेशर की समयपूर्व रोग को पहचानने की क्षमता आपको रोग की आक्रामकता से बचा सकते है। मैं स्वयं कई बार इस उपचार का लाभ ले चुका हूँ और इसकी क्षमता पर मुझे कोई संदेह नहीं है।

कारण-
1. एसिड एजिप्ट मात्र मच्छर के काटने से होता है
2. यह मच्छर आमतौर पर दिन में काटते हैं।
3. लक्षण देर से प्रकट होना इस रोग को जानलेवा बना देता है।
4. डेंगू का संक्रमण एक से दूसरे को नहीं होता परन्तु उस मच्छर द्वारा हो सकता है जिसने संक्रमित व्यक्ति को काटा है।
5. डेंगू मच्छर गंदे या साफ रुके हुए पानी में पैदा होते है।

लक्षण-
1. कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र (जो लोग अक्सर बीमार होते हों) वाले लोगों में जल्दी प्रकोप हो सकता है।
2. कंपकंपी के साथ तेज बुखार आता है।
3. इसका बुखार बदलते मौसम में खासतौर पर बरसात के आस-पास होता है।
4. प्रत्येक अंग, मांसपेशियां एवं हड्डियों तक में असह्य पीड़ा।
5. सिर दर्द, गले में दर्द के साथ कमजोरी।

एक्यूप्रेशर के नजरिये से:
श्री जे0पी0 अग्रवाल जी ने बताया कि एक्यूप्रेशर संस्थान द्वारा त्रिदोष, धातु, मल आदि के आयुर्वेदिक विश्लेषण को आज की प्रचलित विधा के नजर से विश्लेषण करते हुए हॉथ एवं पैर के कुछ बिन्दुओं पर दबाव देकर उपचार किया जाता है जिसके लिये छोटे छोटे मैगनेट का प्रयोग किया जाता है। उपचार ऊर्जा पर आधारित है अत: औषधि का प्रयोग नहीं किया जाता इसलिये साइड इफेक्ट भी नहीं होता।
डेंगू संक्रामक रोग है जो कि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को नहीं होता परन्तु डेंगू वायरस के वाहक एसिड एजिप्ट, मच्छर के काटने या डेंगू संक्रमण से ग्रस्त किसी व्यक्ति के बाद स्वस्थ व्यक्ति को सामान्य मच्छर के काटे जाने से हो सकता है। इस प्रकार के रोगों में लाल एवं श्वेत रक्तकण और प्लेटलेट आदि शरीर के चयापचय सम्बन्धी तत्व प्रभावी होते हैं। प्रारम्भ में तीव्र कंपकपी के साथ ज्वर आना, हॉथ पैर में तीव्र वेदना, चेहरा रक्तिम एवं नेत्र लाल रहते हैं। हॉथ पॉव की त्वचा पर लाल रक्त के निशान आ जाते है। नाक एवं हॉथों से रक्त स्राव हो सकता है। यह स्थिति रोग की गंभीरता की परिचायक है। 
इसका उपचार आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर के दृष्टिकोण से किया जा सकता है। डेंगू की अवस्था में निर्धारित बिन्दु पर उपचार देने से प्लेटलेट की संख्या में वृद्वि होने लगती है जिसके लिये रक्त में पित्त की मात्रा को कम करके और कफ की मात्रा को बढ़ाकर उपचार दिया जाता है जैसे जैसे तापमान कम होने लगता है प्लेटलेट की संख्या तेजी से बढ़ने लगती है। साथ ही संक्रमण निकालने और रोगी का प्रतिरोधी तंत्र मजबूत करने के लिये भी बिन्दु प्रयोग किये जाते हैं। एक्यूप्रेशर संस्थान इलाहाबाद में इस विधि से नि:शुल्क उपचार दिया जाता है जिसकी अनेक शाखायें अन्य शहरों में भी उपलब्ध हैं जहॉ उपचार प्राप्त किया जा सकता है। समुचित स्वास्थ्य लाभ के लिये बिन्दुओं का सही चयन एवं प्रयोग आवश्यक है। 


उपचार प्रबन्ध 
काला गोला - मैगनेट का पीला भाग
सफेद गोला - मैगनेट का सफेद भाग

























1- Both RF 4th Spr- 2,3,4,7 sed. 5,6 tone 
2- Lt Thumb all LVM - 0 tone 9 sed.
3- Rt Thumb 1/2 LHM - 3,4 sed. 5,6 tone 
4- Both SF 'V' Jts. - 3,4 sed. 5,6 tone
5- Rt RF 9th Spr - 3,4 sed. 5,6 tone
Lt RF o Spr -  3,4 sed. 5,6 tone



                                                                                                       - उर्वशी उपाध्याय

Sunday 30 June 2013

कुदरत के इस कहर का जिम्मेदार कौन?


विकास एवं विनाश के बीच की घटती खाईं का अद्भुत नमूना उत्तराखण्ड की दैवीय आपदा को समझा जा सकता है। विकास के रास्ते विनाश की ओर बढ़ने की सहज इच्छा ने ही उत्तराखण्ड को एक अलग राज्य के रूप में स्थापित किया। दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्तार से विकास की तमाम योजनाएं तैयार की गयीं। प्रकृति की अनुपम छटा से परिपूर्ण आस्था के तमाम आयाम अपने में समेटे हिमालय की ये वादियां निश्छल झरने, स्वच्छ जलकुण्ड, झील, नदियां एवं तमाम सरोवरों की प्राकृतिक छवि को अपने आंचल में समाए हुए है। पर अचानक हिमालय की हरियाली खुशहाली एक विभीषिका की शिकार हो गयी। क्या यह आपदा दैवीय हैं? हमारा इससे कोई सरोकार नहीं? हम जिम्मेदार नहीं हैं? यह सिर्फ सोचने की नहीं बल्कि एक विश्वव्यापी चिन्तन की है क्योंकि जिस प्रकृति के आगे हम पंगु है उसके रौद्र रूप को हम झेल नहीं सकतें, उसे संभाल नहीं सकते, रोक नहीं सकतें तो उसके साथ छेड़छाड़ कर उसे चुनौती देने का हक किसे है?
मंदिर का पट हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी खुला, भक्त और भगवान दोनों पहले भी थे आज भी, पर परिदृश्य काफी कुछ बदला हुआ ... जो खाका 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग द्वारा तैयार किया गया था आज गौण हो चुका है। उस तस्वीर में पर्वतों के अलौकिक दृश्य के मध्य हरीभरी वादियों से घिरा सिर्फ मंदिर दिखता था। उस परिदृश्य से आज की तस्वीर की तुलना करें तो मन व्यथित हो जाता है ... आज मंदिर के आस-पास अतिक्रमण कर मकान और व्यवसायिक भवन बन गए हैं। जिससे उसका वहां का वह दृश्य नजर नहीं आता जो कि हमारे पूर्वजों ने केदारनाथ धाम के रूप में हमें विरासत में दिया था।
समय के साथ स्थान का जो भी दुरूपयोग हुआ, प्रशासनिक तौर पर इसे व्यवस्थित रूप से हटाया जा सकता था। इस पर ध्यान नहीं दिया गया अत: यहां जनसंख्या का घनत्व बढ़ता गया और जन हानि धन हानि का यह नमूना सामने आया। ऐसा नहीं कि भूस्खलन, भूकंप, बादल फटने आदि के घटनाएं पहले नहीं हुयी हैं। पर्वत टूटते हैं... तो हिमालय भी टूटता हो रहा होगा ... भूकंप भी आया होगा, कुछ बना होगा तो कुछ बिगड़ा भी होगा। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि प्रकृति का इतना भयावह कोप देखना पड़ा?
मानवीय आबादी की वृध्दि ... सुख सुविधाओं की चाह ... ने मानवीय बस्तियों को पहाड़ों तक विस्तृत कर दिया है। यह विस्तार इस कदर हुआ कि प्रकृति का सन्तुलन खोने लगा ... कहीं वन कटते गए ... कहीं लगातार खनन होता रहा ... कहीं पहाड़ों में विस्फोट कर पत्थर निकाले गए ... कहीं बांध पर बांध बनाए जाने लगे ... बहुमंजिली इमारतों का जाल फैला ... तो पहाड़ों पर रेल हवाई जहाज ... एवं आवागमन का चक्र भी चला, यही नहीं देश की जीवन धारा मां गंगा को भी बांधों में जकड़ दिया गया। पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे प्रकृति का संरक्षण हो सके। दूर-दूर तक हरियाली का नामों निशां नहीं है। कंक्रीट के जंगलों ने हर तरफ कब्जा कर लिया है। ... यह विस्तार विनाश का संदेश वाहक तो है, पर उस संदेश को कोई नहीं पढ़ सका और विनाश की इस विभीषिका को आने से रोक पाना असंभव हो गया ... ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे, भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी, भूकंप के बार-बार आने की खबरें आम होने लगीं। अगर पिछली पूरी सदी पर नजर डाले तो न तो ऐतिहासिक साक्ष्य ऐसे है और न तो हमें पूर्वजों से ऐसी प्रमाणिक बातें पता चली हैं कि प्रकृति के कोप की इतनी भयावह तस्वीर पहले आयी होगी।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद खुदाई बांध परियोजनाओं, नदियों को बांधने या दिशा बदलने पहाड़ों में सुरंग बनाकर नदियों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में दिन रात एक कर प्रकृति को चुनौती देने का कार्य लगातार हुआ है। प्रकृति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति कई गुना तेज हुयी है। और उसका दंश झेलने के लिए हम बेबस भी हैं।
पिंछले एक दशक से उत्तराखण्ड में सड़कें बनाने, तमाम प्रकार के खनिजों के लिए किए गए खनन, रेत, बजरी आदि की खुदाई, विद्युत परियोजनाओं की तेज रफ्तार ने जो अनियन्त्रित वातावरण बनाया है उसका दुष्प्रभाव नदियों की दिशा एवं दशा के वर्तमान स्वरूप के निंर्धारण के लिए पर्याप्त है। यही कारण है कि 1991 एवं 1998 में आए भूकंप से तबाही का आलम वर्तमान स्थितियों की तरह भयावह नहीं था।
विकास के तमाम आयाम प्रकृति के कोप के आगे बेबस हैं... जैसे इस बार अलखनन्दा, घौली, भागीरथी, मंदाकिनी, विष्णु गंगा आदि ने अपना विकराल कोप दिखाया है, सबक के लिए काफी है। दूर-दूर तक मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ बचाव के तमाम प्रयास भले ही किए जा रहे हैं लेकिन परिस्थितियों का साम्य होना जितना आवश्यक है उतना ही दुष्वार है उनका साम्यावस्था में बने रहना। हर कदम पर प्रकृति की विभीषिका के नए नमूने नजर आते हैं। लेकिन विकास के माध्यम से विनाश के इस खेल में हमारी भागीदारी कब तक और कितनी रहे इस पर सोचना ... समझना और अमल करना अब हमारी आवश्यकता नहीं रह गयी बल्कि अब यह अपरिहार्य हो चुका है।
                                                                - उर्वशी उपाध्याय

Friday 28 June 2013

महाकाल


दब गये अम्बर तले
थोड़े से बाशिन्दे
वहीं रहते थे वो...
अरे...
वहीं भई...
आकाश गिरा था जहां!
वही आकाश
जिसे बेध एक रह गुजर
उत्तर चला - दक्षिण चला
पूरब चला - पश्चिम चला
आंख थी पथरा गयी
देखते - देखते
पत्थर - पत्थर - पत्थर
पानी - पानी - पानी
कुहरा का एक झोंका फिर आया
स्मृतियों की आंधी बनकर
मेरा एक घर था...
बच्ची थी, पत्नी, एक बाबा बुजुर्ग
होंगे सब सोए हुए...
चलों चले, अब घर की ओर!
घर? लेकिन कहां?
क्या होता है घर?
यहां पर तो
इक नयी सृष्टि की
कल्पना हो सकती है
कल्पना...?
भला वो क्या है?
शायद अब शुरू होगा सबकुछ...
पर खत्म हुई थी जो
वो दुनिया थी कहां?
जो खोज रहा था अस्तित्व खोया
वो भी था चलता बना,
कह गया जाते-जाते
पत्थर हैं सब...
पानी - पानी - पानी
वृक्ष हैं.. मां की गोद में मुंह छिपाए
धुंआ - धुंआ - धुंआ
जो गिरा था वह आकाश था
उसने अकेले ही देखा था
यह सारा मंजर
कोई साथ न था
और आज
उसके संग  उसका ही हाथ न था...
एक बार फिर
जीता महाकाल था
महाकाल....।
                                            उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा'

Wednesday 5 June 2013

दुनिया की रचना

कहते हैं लोग
धरती के
विशालतम स्थलों पर
फैली दुनिया
सुन्दर है / स्वच्छ है
आडम्बरों से दूर
यह
बहुत बड़ी है,

प्रबल है चाह
भावनाओं में बल है
इच्छाएं / कल्पनाएं
सभी कुछ,
हमारे
मर्म से जुड़ी हैं,

कोशिशों का संसार है
विकास है / विस्तार है
अह्लादित संसार की..
कर्तव्य की.. अधिकार की..
हर अनुभूति बड़ी है,

सब सच है
पर,

वो लोग,
यह मानने से
इन्कार नहीं करते
कि,
दुनिया की रचना ही
दुनिया के सामने
काल की तरह
मुंह बाए खड़ी है।
                                    - उर्वशी उपाध्याय

Saturday 5 January 2013

दंश और दुस्साहस की दुनिया में... दामिनी


अन्याय, भेदभाव, शोषण व तिरस्कार की जो दुनिया हम देख रहें हैं क्या हम उसमें रहना चाहेंगे? आने वाली पीढ़ियों को परम्परा की यही सौगात हम पहुंचाएंगे? क्या बलात्कारी स्वयं यह बर्दास्त करेगा कि उसके घर की किसी महिला... बहन, बेटी, भाभी के आदि के साथ यह घिनौना कृत्य हो?
दामिनी का दर्दनाक अंत एक बहाना हो सकता है सभी की व्यवहारिक सोच को बाहर लाने का जहां एक ओर बलात्कार के सैलाब से तर बतर समाज में अब भी सिर्फ राजनीति गर्म है- कहीं आपसी राजनीति, कहीं कानूनी और कहीं परिस्थितियों से राजनीति। कोई व्यवस्था की जटिलता के बीच घुसते हुए राह निकालने की ओर शायद नहीं बढ़ना चाहता।
२०१२ का अंत बहुत दर्दनांक रहा... कई बार शर्मिंदगी भारतीय समाज की उस संस्कृति पर हावी होती रही जहां कहा जाता है- ‘‘यस्य नार्यस्त पूज्यन्ते, वस्ते तत्र देवता’’। लेकिन जाते जाते दुनियां में अलख जगाने वाली दामिनी २०१३ के लिए दंभ और दुस्साहस की दुनियां के खिलाफ मशाल बन चुकी है। अब जरूरत है उस मशाल को जलाए रखने की... जिससे दमन का दंश झेलकर किसी दामिनी की दर्दनांक दुनिया फिर से आबाद न हो।
किसी भी देश, सभ्यता, संस्कृति को महान बनाना सर्वथा उन बातों पर निर्भर है जो कि बातों, विचारों को प्रवाहित या सबके मध्य फैलाने का माध्यम बन सकती हैं। दामिनी की दर्दनांक दुनियां को समाज में प्रवाहित कर मीडिया ने सामाजिक चेतना का जो उदाहरण पेश किया है, अतुलनीय है। किसी भी व्यवस्था को बदलने के लिए, पुनर्स्थापित करने के लिए आम जनता की आवाज व्यवस्था के हुक्मरानों को कितना मजबूर कर सकती है यह इस वक्त स्पष्ट देखा जा सकता है। परन्तु शायद अब मानसिकता ही भुलावे की होती जा रही है तभी कोई चीख-चीत्कार कभी ज्यादा देर तक असर नहीं डाल पाती। अभी दामिनी आखिरी सांसे ले ही रही थी कि हवस की शिकार एक बालिका अपनी सुरक्षा की फरियाद लिए थाने जाती है और उन्हीं पुलिसवालों द्वारा उसे फिर से शिकार बनाया जाता है। देश भर में दर्द और जुनून का आलम थमा नहीं लेनिक अखबारों के हर पांचवी खबर यही है... रेप की नहीं ... गैंग रेप की... न्याय के मंदिर में अन्याय? समाज परिवार में सिर्फ असुरक्षा आखिर कहां जाए आधी आबादी? कहां पले बेटियां?
शारीरिक शोषण के बहाने मानसिक यातना का यह खेल नया नहीं है। चीर हरण द्रौपदी का सरेआम हुआ था। सीता हरण का उदाहरण भी हमारी संस्कृति में है। इन्ही उदाहरणों से हमें अपराधियों का हश्र समझ लेना चाहिए? संस्कृति और सभ्यता के बदलते ताने-बाने में आज की विकास की आवश्यकताएं क्या भुला देना चाहिए? क्या नारी अस्मिता को सार्वजनिक कर देना चाहिए? या फिर यह मान लेना चाहिए कि विकास की भाषा कुकृत्यों के व्याकरण से तैयार होती है।
यह सच है कि पाश्चात्य सभ्यता की नकल ने हमारी सभ्यता में कुछ बदलाव किये हैं। पहनावे में भी परिवर्तन हुआ है। पुरुषो-स्त्रियों की समानता के लिए कई प्रयास किए गये हैं। कुछ संस्कृति की सोच में शामिल हैं तो कुछ अलग भी हैं। परन्तु कुकृत्य की शिकार महिला अपने मान की रक्षा के लिए आज भी जूझती है। उसे मानसिकता की दोहरी नीति की तराजू में तौलना कितना तर्कसंगत है? एक तरफ हम बलात्कार जैसी घटनाओं में दोषियों के लिए फांसी की मांग करते हैं वहीं दूसरी ओर हम दोष लड़की के पहनावे, असमय आने जाने को देते हैं और हमारे राजनेता उसे मर्यादा में रहने की सीख देते हैं। अनेक दुर्व्यवहार, दुर्व्यसन और अशिक्षा के बावजूद कोई भी लड़की इस बात का विरोध ही करेगी कि कोई....। फिर हमारे देश में ही शिक्षित वर्ग का प्रतिनिधि ऐसा कैसे कह सकता है कि यदि वह ‘‘विरोध न करती तो...’’।
यदि अपने मान को बचाने के लिए एक लड़की अपनी जान दांव पर लगाये तो क्या वह दोषी है। एक राजनेता का कहना था कि ‘‘यदि कम उम्र में विवाह कर दिया जाए तो यह घटना रुक सकती है।’’ आखिर उनका कहना क्या था? क्या इसे यह समझा जाए कि पुरुष की शारीरिक संतुष्टि के लिए बालिकाओं की बलि देना अपराध नहीं बल्कि आवश्यकता है? या फिर यह कि - विवाहित महिलाए सर्वथा सुरक्षित हैं? अपना रुख स्पष्ट कर कोई बात नेता जी शायद न कह पाएं। पर बयानों का क्या है कुछ भी दिया जा सकता है। व्यवस्था में परिवर्तन न हों हर प्रयास इसी दिशा में होते रहें हैं और शायद होते रहेंगे। तभी तो तमाम दुराचारी खुले आम घूम रहें हैं। क्योंकि प्रश्न महिला अस्मिता का है जहां पुरुषों का अहं टकराता है तो जीत अपनी ही चाहता है वर्ना महिला आरक्षण बिल वर्षों से पड़ा धूल नहीं फांकता।
मानवीय संवेदना से बहुत दूर पशुवत व्यवहार का यह नमूना हमारे लिए, हमारी संस्कृति के लिए शर्मनाक है। उम्मीद क्या है और परिणाम क्या होगा शायद इसी पर देश का भविष्य निर्भर करेगा, अब देखना यह भी होगा कि कानून की तमाम कोशिशें व्यवहारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कौन से आयाम स्थापित करती हैं?
                                                                                            - उर्वशी उपाध्याय