Sunday 30 June 2013

कुदरत के इस कहर का जिम्मेदार कौन?


विकास एवं विनाश के बीच की घटती खाईं का अद्भुत नमूना उत्तराखण्ड की दैवीय आपदा को समझा जा सकता है। विकास के रास्ते विनाश की ओर बढ़ने की सहज इच्छा ने ही उत्तराखण्ड को एक अलग राज्य के रूप में स्थापित किया। दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्तार से विकास की तमाम योजनाएं तैयार की गयीं। प्रकृति की अनुपम छटा से परिपूर्ण आस्था के तमाम आयाम अपने में समेटे हिमालय की ये वादियां निश्छल झरने, स्वच्छ जलकुण्ड, झील, नदियां एवं तमाम सरोवरों की प्राकृतिक छवि को अपने आंचल में समाए हुए है। पर अचानक हिमालय की हरियाली खुशहाली एक विभीषिका की शिकार हो गयी। क्या यह आपदा दैवीय हैं? हमारा इससे कोई सरोकार नहीं? हम जिम्मेदार नहीं हैं? यह सिर्फ सोचने की नहीं बल्कि एक विश्वव्यापी चिन्तन की है क्योंकि जिस प्रकृति के आगे हम पंगु है उसके रौद्र रूप को हम झेल नहीं सकतें, उसे संभाल नहीं सकते, रोक नहीं सकतें तो उसके साथ छेड़छाड़ कर उसे चुनौती देने का हक किसे है?
मंदिर का पट हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी खुला, भक्त और भगवान दोनों पहले भी थे आज भी, पर परिदृश्य काफी कुछ बदला हुआ ... जो खाका 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग द्वारा तैयार किया गया था आज गौण हो चुका है। उस तस्वीर में पर्वतों के अलौकिक दृश्य के मध्य हरीभरी वादियों से घिरा सिर्फ मंदिर दिखता था। उस परिदृश्य से आज की तस्वीर की तुलना करें तो मन व्यथित हो जाता है ... आज मंदिर के आस-पास अतिक्रमण कर मकान और व्यवसायिक भवन बन गए हैं। जिससे उसका वहां का वह दृश्य नजर नहीं आता जो कि हमारे पूर्वजों ने केदारनाथ धाम के रूप में हमें विरासत में दिया था।
समय के साथ स्थान का जो भी दुरूपयोग हुआ, प्रशासनिक तौर पर इसे व्यवस्थित रूप से हटाया जा सकता था। इस पर ध्यान नहीं दिया गया अत: यहां जनसंख्या का घनत्व बढ़ता गया और जन हानि धन हानि का यह नमूना सामने आया। ऐसा नहीं कि भूस्खलन, भूकंप, बादल फटने आदि के घटनाएं पहले नहीं हुयी हैं। पर्वत टूटते हैं... तो हिमालय भी टूटता हो रहा होगा ... भूकंप भी आया होगा, कुछ बना होगा तो कुछ बिगड़ा भी होगा। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि प्रकृति का इतना भयावह कोप देखना पड़ा?
मानवीय आबादी की वृध्दि ... सुख सुविधाओं की चाह ... ने मानवीय बस्तियों को पहाड़ों तक विस्तृत कर दिया है। यह विस्तार इस कदर हुआ कि प्रकृति का सन्तुलन खोने लगा ... कहीं वन कटते गए ... कहीं लगातार खनन होता रहा ... कहीं पहाड़ों में विस्फोट कर पत्थर निकाले गए ... कहीं बांध पर बांध बनाए जाने लगे ... बहुमंजिली इमारतों का जाल फैला ... तो पहाड़ों पर रेल हवाई जहाज ... एवं आवागमन का चक्र भी चला, यही नहीं देश की जीवन धारा मां गंगा को भी बांधों में जकड़ दिया गया। पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे प्रकृति का संरक्षण हो सके। दूर-दूर तक हरियाली का नामों निशां नहीं है। कंक्रीट के जंगलों ने हर तरफ कब्जा कर लिया है। ... यह विस्तार विनाश का संदेश वाहक तो है, पर उस संदेश को कोई नहीं पढ़ सका और विनाश की इस विभीषिका को आने से रोक पाना असंभव हो गया ... ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे, भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी, भूकंप के बार-बार आने की खबरें आम होने लगीं। अगर पिछली पूरी सदी पर नजर डाले तो न तो ऐतिहासिक साक्ष्य ऐसे है और न तो हमें पूर्वजों से ऐसी प्रमाणिक बातें पता चली हैं कि प्रकृति के कोप की इतनी भयावह तस्वीर पहले आयी होगी।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद खुदाई बांध परियोजनाओं, नदियों को बांधने या दिशा बदलने पहाड़ों में सुरंग बनाकर नदियों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में दिन रात एक कर प्रकृति को चुनौती देने का कार्य लगातार हुआ है। प्रकृति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति कई गुना तेज हुयी है। और उसका दंश झेलने के लिए हम बेबस भी हैं।
पिंछले एक दशक से उत्तराखण्ड में सड़कें बनाने, तमाम प्रकार के खनिजों के लिए किए गए खनन, रेत, बजरी आदि की खुदाई, विद्युत परियोजनाओं की तेज रफ्तार ने जो अनियन्त्रित वातावरण बनाया है उसका दुष्प्रभाव नदियों की दिशा एवं दशा के वर्तमान स्वरूप के निंर्धारण के लिए पर्याप्त है। यही कारण है कि 1991 एवं 1998 में आए भूकंप से तबाही का आलम वर्तमान स्थितियों की तरह भयावह नहीं था।
विकास के तमाम आयाम प्रकृति के कोप के आगे बेबस हैं... जैसे इस बार अलखनन्दा, घौली, भागीरथी, मंदाकिनी, विष्णु गंगा आदि ने अपना विकराल कोप दिखाया है, सबक के लिए काफी है। दूर-दूर तक मानवीय अस्तित्व पर प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ बचाव के तमाम प्रयास भले ही किए जा रहे हैं लेकिन परिस्थितियों का साम्य होना जितना आवश्यक है उतना ही दुष्वार है उनका साम्यावस्था में बने रहना। हर कदम पर प्रकृति की विभीषिका के नए नमूने नजर आते हैं। लेकिन विकास के माध्यम से विनाश के इस खेल में हमारी भागीदारी कब तक और कितनी रहे इस पर सोचना ... समझना और अमल करना अब हमारी आवश्यकता नहीं रह गयी बल्कि अब यह अपरिहार्य हो चुका है।
                                                                - उर्वशी उपाध्याय

Friday 28 June 2013

महाकाल


दब गये अम्बर तले
थोड़े से बाशिन्दे
वहीं रहते थे वो...
अरे...
वहीं भई...
आकाश गिरा था जहां!
वही आकाश
जिसे बेध एक रह गुजर
उत्तर चला - दक्षिण चला
पूरब चला - पश्चिम चला
आंख थी पथरा गयी
देखते - देखते
पत्थर - पत्थर - पत्थर
पानी - पानी - पानी
कुहरा का एक झोंका फिर आया
स्मृतियों की आंधी बनकर
मेरा एक घर था...
बच्ची थी, पत्नी, एक बाबा बुजुर्ग
होंगे सब सोए हुए...
चलों चले, अब घर की ओर!
घर? लेकिन कहां?
क्या होता है घर?
यहां पर तो
इक नयी सृष्टि की
कल्पना हो सकती है
कल्पना...?
भला वो क्या है?
शायद अब शुरू होगा सबकुछ...
पर खत्म हुई थी जो
वो दुनिया थी कहां?
जो खोज रहा था अस्तित्व खोया
वो भी था चलता बना,
कह गया जाते-जाते
पत्थर हैं सब...
पानी - पानी - पानी
वृक्ष हैं.. मां की गोद में मुंह छिपाए
धुंआ - धुंआ - धुंआ
जो गिरा था वह आकाश था
उसने अकेले ही देखा था
यह सारा मंजर
कोई साथ न था
और आज
उसके संग  उसका ही हाथ न था...
एक बार फिर
जीता महाकाल था
महाकाल....।
                                            उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा'

Wednesday 5 June 2013

दुनिया की रचना

कहते हैं लोग
धरती के
विशालतम स्थलों पर
फैली दुनिया
सुन्दर है / स्वच्छ है
आडम्बरों से दूर
यह
बहुत बड़ी है,

प्रबल है चाह
भावनाओं में बल है
इच्छाएं / कल्पनाएं
सभी कुछ,
हमारे
मर्म से जुड़ी हैं,

कोशिशों का संसार है
विकास है / विस्तार है
अह्लादित संसार की..
कर्तव्य की.. अधिकार की..
हर अनुभूति बड़ी है,

सब सच है
पर,

वो लोग,
यह मानने से
इन्कार नहीं करते
कि,
दुनिया की रचना ही
दुनिया के सामने
काल की तरह
मुंह बाए खड़ी है।
                                    - उर्वशी उपाध्याय