Saturday 11 August 2012

मैंने देखा है...


हाथों को यूं ही क्यों
असहाय छोड़ रखा है
पत्थर हैं,
दूर-दूर तक सामने तुम्हारे
सो, तुम निष्क्रिय हो गये!
उठो-चलो-संग स्वयं के
विश्वास का हथियार लो,
मैने,
वीराने को उपवन होते देखा है।

पत्थर में दूब जमे-न सही
चहको और महको
जग को सुगन्ध दो,
मैंने,
कोयले को भी कुन्दन होते देखा है।

अगर तुम्हें पसंद हो
सूरज को तुम चंदा कहो
पर न डरना तुम जहाँ से
पूरब को जब पश्चिम कहो
मैने,
उसके पागलपन को जनमत होते देखा है।
यूं ही वो रोता रहा था
फूलों को लिए हुए
मुस्कुराना हार कर भी
तुम काटों के बीच में
मैने,
तपते रेगिस्तान को सतलज होते देखा है।

भविष्य की कोख में
किलकारियां जो दफ्न सी हैं
क्यूं आंखों में निर्जन सपने..
फुलवारियां बदरंग नहीं हैं
मैने,
निर्जन से उस वन को मधुबन होते देखा है।

हम साथ चले थे बहुत दूर
नदी के किनारों की तरह
रुक गयी थी सोचकर
सान्निध्य संभव.. है?..नहीं?
पर...
मैंने,
धरती अम्बर का संगम होते देखा है।
                                                  - उर्वशी उपाध्याय

1 comment: