Friday 17 August 2012

परिचय


एक बादल का टुकड़ा
मेरी ही तरह
धूम रहा था
उद्देश्यहीन होकर
अनजान था वह मुझसे
मैं उससे अपरिचित थी।
फिर,
एक सुबह मैं भी बढ़ी
बढ़ा वह भी मेरी ओर
लिए संग में एक डोर
डोर ही तो सहारा थी
अब मैं उससे परिचित थी।
मैं और वो बादल
मिल गए थे
बरस पड़े थे हम दोनों
पर,
कितनी घड़ी के लिए
शायद,
बरसे थे हम सदियों बाद
जिससे मैं सदियों पहले परिचित थी
कुछ सोचा
तब मुझको
तकदीर पर रोना आया
क्योंकि?
बदल गया था रुख
बादल के उस टुकड़े का
अब थी जो परिस्थिति
मैं युगों से
उससे परिचित थी।
                                - उर्वशी उपाध्याय

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