एक स्त्री
नारी अस्तित्व को
सुरक्षित रखने का
प्रयत्न करती
पेट पालती है
सड़क पर पड़े पत्थरों को तोड़कर
अचानक,
हाथ थम जाते हैं
सतब्ध रह जाती है वो
एक अनजानी बात
मन में पाकर
सोचती है
मैं तोड़ रही हूँ जिस तरह
इन बेजान पत्थरों को
हम सबको भी तोड़ रहा है कोई
नारी टूट रही है
उसी तरह
जिस तरह हमारे हाथों
टूटता है पत्थर
क्यूं टूट रही है नारी
क्यू लुट रहा है उसका अस्तित्व
हां शायद कारण यह हो
कि
वह भी है पत्थर
बोलने वाली किन्तु खामोश
बोलती पत्थर।
- उर्वशी उपाध्याय
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